पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४०७

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जाता है। पर, जहाँ प्रकरण विचार करने के अनंतर ज्ञात होता हो और जहाँ प्रकरण के स्पष्ट होने पर भी विभावादिको की तर्कना करनी पड़े, वहाँ सामग्री के विलंब के अधीन होने के कारण चमत्कार में कुछ मंदापन आ जाता है, वह धीरे धीरे प्रतीत होता है; सो वहाँ यह रति आदि व्यंग्यसमूह संलक्ष्यक्रम भी होता है। जैसे-"तल्पगताऽपि च सुतनुः......" इस पद्य में,जो कि पहले उदाहरण मे आ चुका है, 'संप्रति' इसके अर्थ का ज्ञान विलंब से होता है। सो उन्हे संलक्ष्यक्रम व्यंग्य भी मानने में कोई बाधा नहीं। और यह भी नहीं है कि रवि आदि की ध्वनियाँ जिस प्रमाण से ग्रहण की जाती हैं, उस प्रमाण से उनकी असंलक्ष्यक्रमव्यंग्यता सिद्ध होती हो, जिससे कि हमे उन्हें असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य मानने के लिये बाध्य होना पड़े। तात्पर्य यह कि वे संलक्ष्यक्रम व्यंग्य होते ही न हों, सो बात नहीं है। अतएव लक्ष्यक्रमो के प्रसंग मे आनन्दवर्धनाचार्य (ध्वन्यालोककार) का यह कथन है कि "एवंवादिनि*[१] देव पाव पितरधीमुखी। लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती॥


  1. * यह पद्य 'कुमारसंभव' का है। इसका पूर्व प्रसंग और अर्थ यों है। पार्वती देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उन्हें वरण करने के लिये वरदान दिया। और उसका परिपालन करने के लिये उन्होंने महर्षि नारद को पार्वती के पिता पर्वतराज हिमालय के पास भेजा। जब वे उससे विवाह प्रसंग की बात कर रहे थे, उस समय की कवि की उक्ति है कि-