पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/७९

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अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग—अर्थात् मिश्रण—से स्थायी भाव रसरूप बनते हैं। यद्यपि इस सूत्र की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं, तथापि हमारी अल्प बुद्धि के अनुसार यह प्रतीत होता है कि भरत मुनि ने इस सूत्र को पूर्वोक्त अर्थ में ही लिखा है; क्योंकि नाट्यशास्त्र में इस सूत्र की जो व्याख्या[१] लिखी गई है, उससे यही बात सिद्ध होती है।

भरत मुनि ने इस बात को दृष्टांत देकर स्पष्ट करने के लिये जो दो श्लोक लिखे हैं, उन्हें हम यहाँ उद्धृत करते हैं, क्योंकि इनसे उनके विचार विशदरूपेण विदित हो जाते हैं। वे ये हैं—

यथा बहुद्रव्ययुतैर्व्यञ्जनैर्बहुमिर्युतम्।
आस्वादयन्ति भुञ्जाना भक्त भक्तविदो जनाः॥
भावाभिनयसंबद्धान् स्थायिभावांस्तिथा बुधाः।
आस्वादयन्ति मनसा तस्मान्नाट्यरसाः स्मृताः॥

अर्थात् जिस तरह भात के रसज्ञ पुरुष अनेक पदार्थों से तथा अनेक दाल-शाक आदि व्यंजनों से युक्त भाव को खाते हुए उसका आस्वादन करते हैं, उसी प्रकार विद्वान् लोग भावों


  1. "को दृष्टांतः? अत्राह—यथा नानाव्यञ्जनौषधिद्रव्यसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः। यथा हि गुडादिभिर्द्रव्यैर्व्यञ्जनैरोषधिमिश्च षाडवादयो रसा निर्वर्त्यन्ते, तथा नानाभावोपगता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्तीति।" इसका तात्पर्य यह है कि जिस तरह गुड़ वगैरह वस्तुओं, मसालों और धनिया-पोदीना वगैरह से चटनी वगैरह तैयार की जाती है, उसी तरह अनेक भावों से मिश्रित भी स्थायी भाव रस बन जाते हैं।