ईश्वर १०३ इसो पुरुषसे प्राण, मन, इन्द्रिय सकल, आकाश, बना वनवासी ऋषियोंको यागादि कर्मकाण्डकी और वायु, ज्योतिः, जल और विश्वको धारण करनेवाली कोई ग्राह्यसूत्र प्रचारकर गार्हस्थ व्यक्तियों को कर्म- पृथिवीने जन्म लिया है। काण्डकी रीति-नीति सिखाने लगा। इसी समय "अग्रिमूर्धा चक्षुषो चन्द्रस्यौं दिश: थोवे वाग्विहतास वेदाः । एक ओर जिस तरह कर्मकाण्डका प्राधान्य बढ़ा, वायुः प्राणो दय' विश्वमस्य पड्यां पृथिवो ष स . रात्मा ॥" दूसरी ओर उसीतरह ऋषिगण दर्शनसूत्र बना ज्ञान- (मुण्डकोपनिषत् २०१४) अग्नि मस्तक, चन्द्रसूर्य दोनों चक्षु, दिक् सकल बलसे ईश्वरका सूक्ष्मतम सूक्ष्मतत्त्व ढूढ़नेमें प्रवृत्त हुये। इस सकल दर्शनसूत्र में भी मतविभिन्नता कर्ण, वेद प्रसिद्ध वाक्य, वायु प्राण, ये विश्व हृदय देख पड़ती है। और पृथिवी ईश्वरका पद हैं। और वही सर्वभूतका सांख्यसूत्रमें कपिलमुनिने स्थिर किया है,- अन्तरात्मा है। "ईश्वरासिद्धेः।" (सांख्यस्० १।१२) इसप्रकार ज्ञानतत्त्व द्वारा ईश्वरका स्वरूप निरू- ईखरका अस्तित्व प्रमाणित नहीं होता। पित हुआ कि आत्माही ईखर है। परन्तु इस ईश्वरको "नेश्वराधिष्ठिते फलनिष्पत्तिः कर्मणा तत्सिद्धेः।" (५२) कौन देख सकता है? “एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते । ईश्वराधिष्ठित कारणमें कर्मदारा कर्मफलरूप दृश्यते त्वया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूचदर्शिभिः ।" (कठोपनिषत् ॥१२)/ परिणामको निष्यत्ति अप्रमाणित है। आत्मा सर्वव्यापी होकर भी अविद्याको मायासे "नात्माविद्या नोभवं जगदुपादान कारण निःसङ्गत्वात्।" (६५) ढका रहता है और अज्ञानीके हृदयमें प्रकाशित नहीं आत्मा और अविद्या उभय जगत्का कारण नहीं "होता। सूक्ष्मदर्शीको सूक्ष्म बुद्धिसे ही उसका दर्शन हो सकते, क्योंकि आत्मा निसङ्ग रहता है। मिलता है। परमात्मा शब्दमें विशेष विवरण देखो। उस "पुरुषबहुत्व व्यवस्थात:" (६४५) समय ऋषिगणने मानवको सिखाया था,-. पुरुषका बहुत्व प्रतिपादित हुषा है। “यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदा वचिः। "प्रमाणाभावान्न तसिद्धिः।” (१०) स तु तत् पदमाप्नोति यम्मान यो न जायते ॥" (कठ श८) ऐसा सिद्धान्त हो नहीं सकता, कि नित्येखर - जिसका बुद्धिरूप सारथि निपुण होता है, जो विद्यमान है। क्योंकि उसके प्रमाण का प्रभाव मनोरूप रज्जको निजवशमें रखता है और जो सर्वदा है। फिर भी यदि कोई नित्ये श्वरका अस्तित्व सत्कर्म करता है, वही परमपद ईश्वरको पाता है। मानता है, तो- वह पद मिल जानेसे फिर जन्म नहीं होता। "खोपकारादधिष्ठान' लोकवत्।” (३) . उपनिषतमें यह सकल ही निर्णीत हुपा है,-मानव ___सामान्य लोगोंको तरह अपने स्वार्थपूरण के लिये कैसे ईश्वरको पाता, कैसे ईश्वरमें समाता और कैसे उसका अधिष्ठान है। (क्योंकि वह कर्मफल भोग इस संसारका दुःखदारिद्र्य तथा माया-मोह छूट जाता करता है) है। इसी समय ज्ञानस्रोतमें बहने और कल्पनाके “लौकिकेश्वरवदितर था।" (५४) मानवके मनमें ईश्वर-विषयक नाना (ऐसी अवस्थामें वह निश्चय ही) लौकिक राजा प्रकारभाव उठने लगे। नानाभावके साथ-साथ अने- जैसा समझ पड़ता है। (इसलिये वह जगत्का उपा. कोंने भिन्न-भिन्न सत निकाले। कोई वेदको संहिता | दान कारण हो नहीं सकता). तथा ब्राह्मणोक्त कर्मकाण्ड द्वारा और कोई आरण्यक ___ “मूले मूलाभावादमूलं मूलम् ।” (१६९) एवं उपनिषद्ग्रोक्त ज्ञानकाण्ड द्वारा ईश्वरसे मिलनेको 1. मूल (प्रकृति)का मूल नहीं होता, सुतरां मूल 'यत्नवान हुआ। इसी मतविभिबतासे क्रमशः ऋषियोंमें (प्रवति) मूलशून्य रहता है। (अतएव मूलशून्य नानाप्रकार वादानुवाद बढ़ा। कोई ऋषि श्रौतसूत्र । प्रति ही जगत्का उपादान-कारण हो सकती है) तरङ्ग में
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