पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/१०३

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२०२ पिता सथा पुत्र, अदिति सकल देव, अदिति पञ्च । अंशमें वही मानो खिल गया है। संहिता, ब्राह्मण श्रेणीलोक और अदिति हो जन्म एवं मरणके और पारण्यकके प्रथमांशमें कर्मकाण्ड द्वारा ईखरको कारण हैं। पाराधना निश्चित हुई है। किन्तु वैदिक ऋषियोंने . सामसहितामें ईश्वरतत्त्वका और अधिकतर परि विचारा-केवल कर्मकाण्ड द्वारा ईश्वरको पूजाकर चय मिलता है, ऋषियोंने कहा है,- महाप्रभ प्रोत हो सकते हैं और हम भी यथेष्ट इहसुख २१शरा ३२ २१॥ २॥ ३९ मिल सकता है सही, किन्तु उस ईश्वरप्राप्तिके उपाय क्या “याव इन्द, ते शत भौं शत भूमी रुतस्यः । हैं? किस प्रकार आचरण करनेसे मानव अनन्त सुख नत्वा वचित् सहसों सूर्या पण न जात मष्ट रोदसी॥" पायेगा और ईश्वरमें समाजायेगा? उस समय सकल ही (साम राशरा४६) ज्ञानके लिये लालायित हुये थे। जानकाण्डमें ईखरकी हे इन्द्र ! आपके परिमाणार्थ यदि समस्त द्युलोक पूजा करने, ज्ञानतत्त्वमें ईश्वरको पहचानने और ज्ञान- शत संख्यक एवं समस्त पृथिवी भी शत संख्यक हो योगमें परब्रह्मरूपी ईखरमें विलीन होने का पथ लोग जाय, तो भी वे आपको छोड़ निकल नहीं सकते। ढंढ़ने लगे। ज्ञानमय ईखरके लिये सकल घबड़ा है वञ्चिन् ! आपको सहस्र-सहस्र सूर्य भी अनुभव कर गये थे। इसलिये समय समझकर वैदिक ऋषियोने नहीं सकते। अधिक क्या-द्यावापृथिवी भी आपको जानकाण्ड का प्रचार किया। इससे पहले हो वेदमें बता व्याप निकल नहीं सकती। . उसी प्राचीन कालमें ही ऋषियोंने ठहराया, कि दिया था-ईश्वर सर्व व्यापी है और इन्द्र तथा सोम प्रभृति देवता उसके नाम मात्र हैं। वह ईखरही मनुष्यको ज्ञान सिखलाता है,-. २३ १२३ १२ २२ ३२३ १२ . “सुपर्ण विप्राः कवयो वचोभिरैक सन्तबहुधा कल्पयन्ति ।" “इन्द, क्रतुन्न पाभर पिता पुवेभ्यो यथा । . (ऋक् १०।११४५ २३ ३१ २ ३ १२ उपनिषत्में यह परमतत्त्व अच्छी तरह बताया “शिचा गो अस्मिन् पुरुहूत यामनि नौवा जयोति रशीमहि ॥ गया है। ज्ञानपिपासु समझ सके थे,- (साम दारा२७) "महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः । ५. हे इन्द्र ! सर्व भूत-प्रकाशक परमात्मन् ! पिता पुरुषान्न पर किञ्चित् मा काष्ठा सा परा गतिः ॥" पुत्रोंको जैसे विद्या एवं धन प्रदान करता है, वैसे ही। (कठवल्ली ।११) पाप भी हमलोगोंको आत्मविषयक ज्ञानधन दीजिये। महत्तत्त्वसे पृथिवीका आदिवीज और पृथिवीके हे पुरुइत ! जिससे हम जीव सकलके पानयोग्य पादिवौजसे परमात्मा सूक्ष्म है, किन्तु उस पुरुषको परब्रह्ममें विलीन हो पर ज्योतिःकी सेवा करें। अपेक्षा कुछ भी सूक्ष्म नहीं है। __ अथर्व संहितामें काल ही ईश्वर-स्वरूप निर्दिष्ट “न जायते मियते वा विपथित् नाय कुतयित् न वभव कथित् । दुना है, जो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते इन्धमान गरीरे॥" "कालो भयो वहति सप्तरश्मिः सहसाची.अजरो भूरिरेताः। . (कठ २०१८) तमा रोहन्ति कवयो विपश्चितस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ॥१ उस परम पुरुषका जम्म नहीं, मरण नहीं; वह कालो भूमिमसृजत काले तपति सूर्यः । ज्ञानस्वरूप है। किसी कारणसे उसकी उतपत्ति काले ह विश्वा भवानि काले चक्षुर्वि पश्यति॥६ नहीं होती। वह आप भी अपना कारण नहीं काले मनः काले प्राण: काले नामसमाहितम्। कालेन सर्वा नन्दत्यागतेन प्रजा इमा: ॥७॥ (अथर्वसंहिता १९५६०) है। वह अज, नित्य, शाश्वत और पुराण है। "शरीर विनष्ट होनेसे वह विनष्ट नहीं होता। । इसप्रकार सर्वच ऋषिगणने वेदक सहिताभागमें | -: "एतस्माज्जायते प्राणो मन: सर्वे न्द्रियाणि च । ईश्वरके अस्तित्वका आभास मात्र दिया है। किन्तु सं- खं वायुयोतिरापः पृथिवी विश्वस्त्र धारियो॥"...... हितामें जो वीज फूटा है, वेदके ब्राह्मण और आरण्यक । । (मुखकोपनिषत् २॥१॥३)