ईश्वर १०७ उसके अनुसार ईश्वरोपासनाका प्रचार करना। घटना नहीं-समस्त हो रूपक है। भगवान्के कूर्म भी कर्तव्य है। कर्म एवं ज्ञानमार्ग पर अनेक! अवतारमें समुद्रमन्थनका उपाख्यान आया है। इस चलमा चाहते हैं सही, किन्तु सहज ही उसे समझ उपाख्यानके पाठसे यही उपलब्धि होती है- नहीं सकते-कैसे उस परमेश्वरको कल्पना की जाय। ____ 'देहिमात्र इन्द्रियरूपी असुरगण-कर्ट क परिपीड़ित कर्म करते हैं सही और ज्ञानालोचना भी चलाते हैं। | है। उसका कर्तव्य इन्द्रियगण को वशीभूत बना सही, किन्तु उससे मनको तृप्ति दे नहीं सकते। हम | विवेकादि देवताके साहाय्यसे कैवल्यरूप अमृत संसारी है और संसारबन्धनमें प्रायः जडीभूत रहते उत्पादन करना है। किन्तु यह कोई साधारण हैं, जो कुछ समय मिलता है, उसमें मन इतना बात नहीं है। इन्द्रियरूपी असुरगणका सहजमें नहीं लगता कि उस निराकार अद्वितीय परमे वशीभूत होना कठिन है। इसीसे भगवान्ने प्रथम खरका ध्यान बंध सके। संसारमें ऐसा निभृत विवेकादि देवतागणसे उनको मिला दिया था। पोछे हौं पाते, जहां रहकर मनको ठहरावें इन्द्रियादिके अधिपति मोह अर्थात् देहात्मबोधसे और चित्तवृत्तिको निरोधमें ला सके। जितने समय विवेकादिने सन्धि को और श्रुतिसमुद्र मथने के लिये कर्मकाण्ड एवं जानकाण्डको आलोचना चलाते हैं, उभय दलने बुद्धिको मन्थनदण्ड बना आशाको रज्ज उसमें मनको शान्त नहीं पाते और न प्राणमें भक्तिका हाथमें लो। आत्मा कूटस्थ है। इसीसे कूनै उपाधि भाव ही बढ़ाते हैं ; केवलमात्र संसारके वैराग्यमें ही विशिष्ट आत्मा मन्दार नामक देहकूटमें था। पड़ जाते हैं। संसारमें रहकर कैसे उस परमपिताको | मन्थनसे प्रथम ही उपसर्गरूप कालकूट निकला। पहचान सकेंगे? इसलिये संसारियोंको उपासनाका महादेवरूप तमोलयकारी गुरुदेवने उसे पोकर शिष्य- भेद सिखाने और सहज ही ईश्वरका रूप समझानेके गणका व्याघात हटा दिया। (क्योंकि प्रथम गुरुके लिये भक्तिप्रधान अष्टादश महापुराण एवं उपपुराण अशेष कष्ट उठानेसे शिष्य को ज्ञान पाता है) फिर बनाये गये। भगवान्ने भी कहा है,- निर्विघ्न वेदाभ्यास होने लगा। क्रम-क्रमसे यज्ञरूप “पत्र पुष्प' फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । सुरभि, ऐखर्यरूप उच्चैःश्रवा घोटक, सांख्ययोगरूप तदहं भक्त्य पहतमन्नामि प्रयतात्मनः ॥” (गीता २६) ऐरावत नामक हस्तो, अष्टाङ्गयोग-रूप अष्ट दिगहस्तो, जो भक्ति सहकारसे मुझे पत्र, पुष्य, फल और | अष्टसिद्धिरूप अष्टहस्तिनो, जीवोपाधिरूप कौस्तुभमणि, जल देता है, मैं सयमी व्यक्तिका वही द्रव्य खा | आत्मोपाधिक पद्मराग, चित्तोल्लास-जनक पानन्दमय पी लेता है। पारिजात वृक्ष, शान्ति एवं करुणा, श्रद्धादि अप्सरागण, - इसीसे पुराणमें पत्र, पुष्प, फल और जलसे सहज चित्शक्तिरूप लक्ष्मी और मिथ्यादृष्टि अर्थात् अविद्या- उपासना प्रचारित हुई है। पुराणकारके ईश्वरको रूपी वारुणीको उत्पत्ति हुई। परिशेष कैवल्या- असंख्य मूर्ति माननेका यह कारण है कि जिसे | मृत हाथमें लिये ज्ञानरूप धन्वन्तरि निकले। जिस रूपकी भक्ति रहे, वह उसी रूपकी पूजा करे। इन्द्रियादि असुरगण अमृतरूप कैवल्य पानेके अयोग्य हमारे शास्त्रमें ईखरके शरीरको जो कथा है। था। इसोसे भगवान्ने विद्यारू प मोहिनीके वेशसे . वह समस्त हो रूपक है। वेदान्तसूत्रमें स्पष्ट उन्हें मोहित कर विवेकादि देववर्गको वह दे चिर- लिखा है- जीवी बनाया। इसी समय तमः ( राहु )ने गुप्तभावसे "भानुमानिकमप्य केषामिति चन्न शरीररुपकविन्यस्तरहीतेदं शयति च।" अमृत पिया और रजः एवं सत्वरूपी चन्द्रसूर्यने उसका . . (ब्रह्मसू व १४।१) परिचय दिया। अनन्तर अन्तर्यामी भगवानने जान- कुछ स्थिर होकर विचारनेसे स्पष्ट ही समझ पड़ता तत्वरूप चक्र द्वारा उसका शिरश्छेदन किया। है कि पुराणोक्ता ईश्वरके अवतारको ला प्रकृत पुराणकारने यह भी सबको बार बार समझाया-
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