सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ईश्वर यथार्थमें ईश्वरका रूप एवं वर्ण इत्यादि कुछ भी नहीं। भगवान्के मत्स्य, कूर्म, वराहादि नाना देह धारण- पूर्वक अवतार होनेका जो प्रसङ्ग है, उसके विवरण है, कल्पनामात्र है। (मार्कण्डेयपुराण ४ अध्याय) . पुराणके मतसे ईश्वर ही पुरुष है। हिजातिगण पाठसे समझ पड़ता है, कि वह सर्वनियन्ता सुर, नर, तियंगादि यावतीय जीवके आभासरूपमें अव- उसीको ब्रह्म बताते हैं और लयकालमें वही सङ्कर्षण नाम पाता है,- स्थान करता है। तन्त्रमें ईखर आकर्षणशक्तिके नामसे भी निर्दिष्ट है,- "पुराण पुरुषः प्रोक्तो ब्रह्म प्रोनी विजातिषु । चये सकर्षणः प्रोक्त स्तमुपास्ममुपासाहे ॥” ( यरुड़ २ अध्याय) "कालाकर्षणरूपा च वृद्ध्याकर्षण-रूपिणी । अहङ्काराकर्षिणी च सर्वाकर्ष स्वरूपिणी ॥ पुराण में गौताका वही मूलतत्व कहा गया है,- रसाकार्षणरूपा च गन्धाकर्षणरुपिणी । "मय्यावश्यमनो ये मां नित्ययुक्त्वा उपासते । चित्ताकर्षगरूपा च धैर्याकर्षणरुपिणी ॥ अडया परयोपताते में युक्ततमा मता: ॥ २ बोजाकर्षणरूपा च तथा चाकर्षिणी पुनः । ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्ती पर्युपासते। अमताकर्षिणी देवो शरीराकर्षिणी तथा ॥"(वारातीवन्ध ६ पटल) सर्ववगमचिन्ताञ्च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ ३ तन्त्र में भी यही घोषणा हुई है,- संनियन्येन्दि यग्राम' सर्वव समबुद्धयः । ते प्रान वन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ ४ “चिन्मयस्याप्रमेयस्य निष्कलस्याशरीरिणः । के शोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । साधकानां हितार्थाय ब्रह्माणो रूपकल्पना ॥" अन्यका हि गतिर्दु:ख देहवहिरवाग्रते॥५ (कुलार्णवतन्च ५ पटल ६ अध्याय) ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि स'न्यस्य मत्पराः । चिन्मय, अप्रमेय, निष्कल और अशरीरी ब्रह्मको अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ ६ रुप-कल्पना केवल साधकके हितार्थ है। तेषामह' समुद्धर्ता मृत्यु संसारसागरात्।” (गौता १२ अध्याय) इसीप्रकार साकार उपासना चली है। साकार ___ जो मेरे (ईश्वरके) प्रति अत्यन्त अनुरक्त और उपासनाके प्रचारका प्रधान कारण यही है कि मन निविष्टमना ही श्रद्धापूर्वक उपासना करता है, अदृश्य वस्तुको धारणा कर नहीं सकता। विशेषतः वही प्रधान योगी है। एवं जो जितेन्द्रिय है निराकार अक्षय भव्यक्त इत्यादि विशेषण-युता नाम सबको समान समझता है और अक्षर, अनिर्दिश्य, सुननसे प्रथम उसको चिन्ता करना दुःसाध्य हो जाता अव्यक्ता, अचिन्त्य, सर्वव्यापी, हास वृद्धिहीन, कूटस्थ है। सुतरां ऐसी साकार मूर्ति रहना चाहिये, जिससे तथा नित्य परब्रह्मकी उपासना करता है, वह भी मेरे सहज ही किसी प्रकार धारणा हो सके। श्राकार ही पास पहुंचता है। दही अतिकष्टसे अव्यक्त गति पा अवलम्बन करनेसे ध्यान और अर्चना उभयका काम सकता है। जो अव्यक्त ब्रह्ममें आसक्तमना होता है,वह निकल जाता है। मन नियत ही परिवर्तनशील है अधिकतर दुःख उठाता है। जो मरेपर सकल निर्भर और नियत ही नव नव भाव ग्रहण करने का प्रयासो कर एकान्त भक्तिपूर्वक मेरा ही ध्यान धरता है और है। इसीसे साकार-उपासक संसारी नाना मूर्तिमें मेरि ही उपासना करता है, उसे मैं मृत्यु के आकर इस ईश्वरकी पूजा करते हैं। आज षोडशोपचारसे संसार-सागरसे छुड़ा देता है। दशभुजाको और दो दिन पौछे भयङ्करा भोषण महा- इससे संसारी समझ सकता है, कि भक्तिसहकारसे | काली की मूर्ति पूजते हैं। किन्तु साधक समझता है, इष्टदेवको सकल समर्पण कर ध्यान-उपासना करने कि दोनोंमें उसी एक महाशक्ति का पूजन होता है; पर मोक्ष मिलता है। केवल रूप और उपाधिका भेद रहता है। . पहले ही लिख दिया है, कि केवल साधकको आजकल शाक्त, शैव, वैष्णव, गाणपत्य प्रभृति सुविधाके लिये पुराणमें ईश्वरका नानारूप मान लिया विभिन्न मतावलम्बी देख पड़ते हैं। शाक्त इसप्रकार है। वस्तुत: नाना रूपकल्पना रूपर्क मात्र है। पुराणमें | स्तव करते हैं-