पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/१३५

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“अच्छवभावसे उनके मध्य हिन्दुओं के धर्म में ईसाई धर्म। मानोमें मुहम्मदको दोहाई देते और हिन्दुओंसे मिल गया। इसीप्रकार नोबिलौने ४५वर्ष नङ्गेपैरों सन्या- अपनेको ब्राह्मण बताते हैं। ऐसे प्रतारक और स्वार्थ- पर समाजसे ईसाई समाजका प्रकृत हितसाधन सोके वैशमें रह और मुखपर भस्म लगा सैकड़ों निर्बीध नहीं बन सकता।" हिन्दुओंको ईसाई धर्मकी दीक्षा दी थी। आज भी जेसुट अपने धर्मको नीतिका निगूढ़ रहस्य अपरि- मन्द्राजके निकटवर्ती अनेक देशी ईसाई नोबिलीको "तस्वबोधखामों' और 'सिद्धपुरुष समझते हैं। ईसाई चित किंवा खदलस्थ किसी व्यक्तिको कभी बताते न धर्मप्रचारकोंने लिखा है,-ईसाके अन्यतम शिष्य सेण्ट थे। प्रोटेष्टाण्टोंके अभ्युदयसे पोपको असाधारण क्षमता टोमस और उनके बहुत पीछे सेण्ट ज.वियर जो कर घटी और युरोपके प्रधान प्रधान ईसाई-पण्डितों से न सके, जेसुट सन्यासी रबर्ट-डि-नोबिली उससे शत उनकी अधीनता हटी। उस विलुप्त गौरवके उद्धार गुण कार्य करके देखा गये। ईसाई-पण्डित मसीमने । करने के लिये ही जेसुट निःस्वार्थ बन न सके। क्योंकि अपने रचित ईसाई-याजकोंके इतिहासमें कहा है, उनकी धर्मनीतिसे पोप और जेसुट समाजका स्वाथ "भारतमें जैमुट अपनेको ब्राह्मण बताते थे। मनमें लगा था। जैसुटों में असाधारण पण्डित और अनेक आता है, कि जेसुट-याजकों ने असम्भव और भयङ्कर महापुरुष उपजते भी केवल स्वार्थके कारण हो कार्य बनाया था। किन्तु वास्तविक वैसा नहीं हुआ। उनका अधःपतन हुआ। १६०४ ई में इङ्गलेण्डसे वे देखने में सन्यासी रहे, किन्तु इधर गुप्त भावसे जेसुट निकाले गये। पोछे व अपर राज्यसे भी मद्य पीते, मांस खाते और रमणीकी सेवा करते थे।"* ताडित हुये। १७७३ ई० में क्लेमेण्ट नामक पोपने - १६५६ ई में जेसुट-सन्यासी रबर्ट के मरनेपर | साधारणके प्रतिवादसे बहुत ही विरक्त हो जेसुट जेसटॉने उनके अनुवर्ती बन कुछ दिन ईसाई धर्मको | समाज बिलकुल तोड़ डाला था। अनन्तर जे सुट चलाया। उनके प्रलोभनसे मटुरा, विशिरापल्ली, रोमन काथोलिक कहलाने लगे। तल्लोर, तेनिवली, सलेम प्रभृति स्थानोंके अनेक नीच ___जातिभेदका अस्वीकार और सार्वजनिक भाट- लोग ईसाई धर्म में दीक्षित हुये। भावका स्थापन ईसाई धर्मका प्रधान अङ्ग है। आदि ____ इधर गोया नगरमें ईसाई धर्माचार्य प्रतिष्ठित ईसाई इसीसे साधारणको भक्ति एवं श्रद्धाके पात्र बने होनेपर पोर्तुगीज ईसाई एक ओर भारतमें राज्य . और इसीसे समग्र युरोपके लोग उनका मत मानने और दूसरी ओर असिके बलसे ईसाई धर्म | लगे। किन्तु रोमक-समाजके प्रादुर्भाव कालमें यह चलाने आगे बढ़े। पोपने यरोपमें जो दारुण नियम न रहा। दाक्षिणात्य के अनेक लोगों को ईसाई दण्डविधि ( Inquisition ) चलाया, पोतंगीजोंके धर्म में दीक्षित करते भी वे जातिभेदको प्रथा रोक न अधिकृत भारतमें भी उसोका नियम निकल पड़ा। सके। गिर्जामें भी उपासनाके समय उच्चजातिके पोर्तुगीजोंका अत्याचार भारतमय राष्ट्र बना और आगे और नीच जातिके लोग पीछे बैठते, निम्न श्रेणी- इसी दोषके कारण भारतसे पोर्तुगीज पराक्रम चिर वाले बैठनेको श्रासन पात न थे। दाक्षिणात्यमें जो दिनके लिये खर्व हुआ। पोर्नु गौज देखो। उच्च श्रेणोके लोग दीक्षित हुये, वे नीच जातिवालों .ई. १६वें शताब्दके शेष भागमें युरोपके प्रधान-प्रधान पर कट त्व और याजकता रखते ; किन्तु नीच जाति- ईसाई जेमुटोंको धर्मप्रणालीका. तीव्र प्रतिवाद करने वाले उच्च श्रेणीवालों का कोई कार्य कभी कर न लगे थे। सकलने ही कहना प्रारम्भ किया,- सकते। वस्तुतः दाक्षिणात्यमें जो ईसाई हुये, वे "नेसुटोंको प्रकृत धर्मप्रचारक समझ नहीं सकते। नाममात्रक हो ईसाई रहे। उस जातिका प्रधान वे यहदियोंसे यहूदियोंके मनोमत बात करते, मुसल- अङ्ग वर्णभेदको प्रथा चली जाती थौ। आज भी Mosheim's Ecclesiastical History. दाक्षिणात्यमें उन्हों, सकल देशी ईसाइयों के वंशधरों ने