___ उच्छिरस्-उच्छिष्टभोजन (पु.) ३बहुमूल्य भूमिके देनेसे प्राप्त हुई सन्धि, जो शूट्रका एक मास, वैश्यका एक पक्ष, क्षत्रियका मुलह बेशकीमत जमीन देनेसे मिली हो। एक सप्ताह और ब्राह्मणका उच्छिष्ट खानेसे एक दिन उच्छिरस् (सं.वि.) उन्नतं शिरोऽस्य । १ उव्रत | ब्रत करना पड़ता है। शिरविशिष्ट, महिमान्वित, जो मत्थेको ऊपर उठाये "श्वशूकरान्ताचण्डालमद्यभाण्डरजसला। हो। (पु०)२बौद्धशास्त्रोक्त उसमुण्ड पर्वत । यद्यच्छिष्ट : स्प शेतव वच्छ सान्तपनं चरेत् ॥” ( काश्यप). उच्छिलीन्द्र, उच्छिलीन्छ देखो। - कुक्कुर, शूकर, शुद्र, चण्डाल, मद्यभाण्ड और उच्छिलीन्ध (सं० क्ली० ) उद्गतं शिलीन्धम् । गोमयः रजस्खलाका उच्छिष्ट छूनेसे कच्छ और सान्तपन द्वारा च्छत्राक, कुलाह-बारान, कुकरमुत्ता, सांपकी टोपी। शुद्ध होना चाहिये। वर्षामें यह भूमिको विदारण कर प्रकट होता है। चिकित्साशास्त्र में भी उच्छिष्ट भोजन निषिद्ध उच्छिष्ट (सं०नि०) उत् शिष्यते यत्, उत् शिष्-क्त। कहा है। क्योंकि जो व्यक्ति प्रथम खाके उच्छिष्ट १ भुक्तावशिष्ट, जठा, जो खाते-खाते बचा हो। शास्त्रमें। छोड़ता है, उसका संक्रामक रोग उच्छिष्ट खानवालेको उच्छिष्ट द्रव्य खानेको मना कहा है- भी दबा सकता है। अतएव उच्छिष्ट भोजन न करना "नोच्छिष्ट' कस्वचिद्दयानादाचैव तथान्तरा। ही अच्छा है। २ त्यक्त, छूटा हुआ, जो छोड़ दिया न चैवात्यशनं कुर्यानचौच्छिष्टः क्वचिद व्रजेत् ॥” ( मनु २५६) गया हो। ३ अपवित्र, नापाक, जिसके मुह या हाथ- उच्छिष्ट किसीको देना, सायं एवं प्रातभॊजन | पर जठा खाना लगा रहे। (पु०) ४ मधु, शहद . कालके मध्य फिर खाना, अतिशय आहार करना (लो०) ५ दत्तावशिष्ट, बचत, जो देनेसे बचा हो। और उच्छिष्ट मुखसे कहीं जाना न चाहिये। "सस्कृतप्रमौतामां योगिनां कुलयोषिताम् । भिन्न-भिन्न जातिका उच्छिष्ट छने अथवा खानेसे | उच्छिष्ट भागधे यं स्यात् दर्भेषु विकिरश्च यः ॥” (ब्रह्मपुराण) प्रायश्चित्त करना पड़ता है- उच्छिष्टकल्पना (सं० लो०) १ निःसार आविष्कार, "अज्ञानाद वस्तु भुनौत शूद्रोच्छिष्ट' हिजोत्तमः । वेमजा ईज़ाद, बासो बनावट। विरानोपषियो भूत्वा पञ्चगव्येन शुध्यति ॥” ( आपस्तम्ब) उच्छिष्टगणपति (सं० पु.) १ उच्छिष्ट व्यक्ति द्वारा . जो ब्राह्मण अज्ञानसे शूद्रका उच्छिष्ट खाता है, पूजित गणेश। जठे मुह रहनेवाले लोग इन्हें पूजते वह तीन रात्रि उपवास करने बाद पञ्चगव्यसे | है। २ हेरम्ब सम्प्रदाय । इसके मतसे स्त्री और शद्धि पाता है। परुष उभय होते हैं। उनके संयोग वियोगमें पाय "अन्नानां भुक्तशेषस्तु भक्षितो ये हि जातिभिः । नहीं लगता। यह शब्द शुद्धगणपतिके विरोध चान्द्र कच्छ तदर्धञ्च क्रमातेषां विशोधनम् ॥” (प्रायश्चित्तविपाक) द्विजाति अन्नका उच्छिष्ट खानेसे क्रमान्वयमें पाता है। चान्द्रायण और तप्तकृच्छ अथवा उसका अर्ध प्रायश्चित्त | उच्छिष्टगणेश (सं० पु०) तन्त्रोक्त गणेशको मूर्तिका करनेपर शुद्ध होते हैं। एक भेद। गणेश देखो। "चखालपतितादौनामुच्छिष्टान्नस्य भचणे । उच्छिष्टचाण्डालिनी (सं० स्त्री०) तन्त्रोक्त मातङ्गी विजः गोत् पराकैण शूद्रः कच्छ ण शुद्यति ॥" (अहिरा) । देवीको एक मूर्ति । मातङ्गी देखो। चण्डाल, पतित प्रभृतिका उच्छिष्ट अन्न खानसे | उच्छिष्टता (सं० स्त्री०) १ शेष रहजानेको दशा, जिस ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य पराक् तथा शूद्र वच्छ हारा हालतसे कुछ छूट जाये। २ अपवित्रता, नापाको, शुद्ध होता है। जान वझकर उच्छिष्ट खानेसे दुना जठन। प्रायश्चित्त करना पड़ता है। उच्छिष्टभोक्ता, उच्छिष्टभोजिन् देखो। दोष्टिाशने मास' पञ्चमेकं तथा विशः। . .. उच्छिष्टभोजन (सं० पु.) १ देव-नैवेद्य-वलिभोजन- वियस्य तु सप्ताह बाधाणस्य तथा दिनम् ॥” (भज ११४२) । कर्ता, जो देवता पर चढ़ा प्रसाद खाता हो। २ अपरके
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