पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२०३

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हमने अदा १ केशकोट 'उत्कारिका-उत्कुल उत्कारिका (सं० स्त्री०) उत्-क-ख ल। १ सुश्रु- । उत्कुटकमहान (सं० क्लो०) उत्कुटस्थितिका वर्जन, तोक्त शोफादि-निवारक पाचन, लुपड़ी, भुरता, पुल- चित पड़नेसे परहेज। टिस। यथा- उत्कुटकासन, उत्कुट देखो। "निवर्तते न यः शौफो विरकान्तरुपक्रमः । उत्कुण (सं० पु०) उत्-कुण-हिंसने श्रद• चुरा० तस्य सपाचनं कुर्यात् समाइन्यौषधानि तु । कर्मणि अच । १ केशकोट, जं। २ मत्कुण, खटमल। दधितक्रसुरामुक्तधान्याचे योजितानि तु । इसे संस्कृतमें मत्कुण, उहश और किटिभ भी सिन्धानि लदणीकृत्य पञ्चेदुत्कारिका शुभा। कहते हैं। ( Anoplura) यह कीड़ा प्रायः ५०० सैररुपबया शोक' नाशयेदुखया तथा ।" (सुश्रुत) प्रकारका होता, जिसमें मनुष्य के देहपर दो ही उपवाससे विरेचन पर्यन्त प्रक्रिया हारा यदि शोफ | तरहका देख पड़ता है-एक (Pediculus capitis) अच्छा न हो; तो दधि, तक्र, सुरा, मुक्त, कालिक, मस्तक और दूसरा (Pediculus vestimenti) शरीरमें। चत एवं लवण मिला उत्कारिका पकावो और उष्ण किसी किसी स्थलपर पीड़ित व्यक्ति के चम में तीसरा रहते-रहते एरण्डपत्रके सहयोगसे शोफपर बांध दो।। (P. tabescentium) भी उत्पन्न हो जाता है, जो २ रोटिका, रोटो, बाटो। ३ गुटिका, बड़ी। बहुत भयानक होता है। उसके उपजनेसे प्रायः ४ लप्सिका, हलवा, लपसौ। रोगीके जीवन में संशय रहता है। साधारणतः उत्क म उत्काशन (सं० को०) शासनकाय, हुकूमत । पशुपक्षीके शरीरमें अधिक रहता है। इसके देहका उतकास (सं० पु०) उत्कमस्यति, पस-प्रण । कास आयतन चपटा है। ११॥१२ खण्ड वा दस बन सकते रोग विशेष, किसी किस्मको खांसी, खूखार। यह हैं। उनमें शुण्ड के अंश तीन हैं। प्रत्येकके दो पाद और जवंगत श्लेभाका उत्क्षेपक रोग है। स्पर्शेन्द्रियमें पांच ग्रन्थि रहते हैं। मस्तकके दोनों उतकासन (सं० ली.) उत्कास देखो। किनारे एक या दो के हिसाबसे क्षुद्र चक्षु देख पड़ते उत्किर (सं. त्रि०) उत्छ कतैरि श। उत्क्षेपक, है। दंश दो होते हैं। एक दंशके हारा पशुपक्षोके फेंकनेवाला। केश वा पालकमें उत्कुण घूमता फिरता है। समय उतकीर्ण (सं. त्रि.) उत्-व-क्त । १ उत्क्षिप्त, समय पर इसी दंशको प्ड अपने कण्ठम पशु हाला या लगाया हुआ। २ उल्लिखित, लिखा हुआ। पक्षीका रक्त चूस लेता है। शिशुके मस्तक पर प्राय: ३क्षत, बिद्ध, चुभोया हुआ। ४ खोदित, खोदा हुआ। उत्कुणं उत्पन्न हो जाता है। यह केशपर विन्दु- उत्कीर्तन (स. क्लो०) १ घोषण, प्रचार, पुकार, | विन्दु डिम्ब देता, जो आठ दिनके बाद फट पड़ता फैलाव। २ प्रशंसा, तारीफ। है। फिर एक मासके मध्य हो वह बढ़ जाता उतकीर्तित (सं०वि०) १विघोषित, मुश्तहर, ढंढोरा | है। शरीरमें जो उत्कुण उत्पन्न होता, उसका पोटा हुआ। स्त्रीकोट प्रति सप्ताह प्रायः ॥७ शत डिम्ब देकर बच्चे उत्कुञ्चिका (स. स्त्री०) १ स्थूल क्वष्णजीरक, मोटा | निकालता है। काला जीरा। कालानौरा देखो। २ कुलिखनवृक्ष, कुलौं- चक्षुके पलकपर भी एक जातीय उत्कुण उपजता जनका पेड़। है-जो कभी मस्तकके केशमें देख नहीं पड़ता। वह उत्कुञ्चिता, उत्कुञ्चिका देखो। भी बहुत अनिष्टकर होता है। बन्दरके लोममें जो उत्कुट (सं० ली.) उव्रतं कुटो यत्र । उत्तानशयन, | उत्कुण रहता, वह स्वतन्त्र जातिका होता है। चित पड़नेको हालत। कभी-कभी यह सिन्धु-घोटक में भी देख पड़ता है। उत्कुटक (सत्रि०) उत्तान, चित, पौठको जमीन्से | उत्कुल (सं० वि०) परिभ्रष्ट, नाखलफ, कपूत, लगाये और चेहरेको ऊपर उठाये हुवा। | अपने खान्दानको इज्जत बिगाड़नेवाला।