पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२२५

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२२४ उत्सर्जनी-उत्सादक एक क्रिया। पूर्व काल पर बैदशिक्षार्थी यह क्रिया : मुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यां" तत्त्वार्थसूत्र २ अ: फिर इन दोनो करते थे- कालोंके भी प्रत्ये कके छह छह भेद हैं । सुषमा सुषमा, "यावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाप्रपाकृत्य यथाविधि: सुषमा, सुषमा दुःषमा, दुःषमा सुषमा, दुःषमा, दुःषमा युक्त महन्दोस्वधीयोत मासान् विनोध पञ्चमान् । दुःषमा ये छह भेद तो अवसर्पिणीके हैं और दुःषमा युथे तु छन्दसां कुर्याइहिरुत्सर्जन विजः ! टुःषमा, दुषमा आदि उलटे येही छह भेद उत- माघशुक्लस्य वा प्राप्त पूर्वाहे प्रथमेऽहनि ॥ सर्पिणीके हैं। सुषमा सुषमाका परिमाण चार कोड़ा यथाशास्त्वन्तु कृत्वै बमुत्सर्ग छन्दसा बहिः । कोडी सागरोपमकाल । सागरोपमकाल देखो। सुषमाका विर मम् पक्षिणों रात्रि तदेकमहर्निशम् ॥ अत ऊर्ध्वन्तु छन्दांसि शुक्ल षु नियत: पठेत् । तीन कोड़ाकोड़ी, सुषमा दुःषमाका दो कोडाकोड़ी, वेदाङ्गानि च सर्वाणि कृष्णपच्चे षु सपठेत् ॥” (मनु १९५-९८) । दुःषमा सुषमाका व्यालीस हजार वर्ष कम एक श्रावण अथवा भाद्र मासकी पूर्णिमासे लगा ग्राहक कोड़ाकोड़ो सागर, टुषमाका इक्कोस हजार वर्ष और अनुसार उपाकर्म समापनानन्तर साधं चार मास वेद दुःषमा दुःषमाका भी इकोस हजार वर्ष है। आजकल पढ़ना चाहिये। फिर पौष मासके पुथ नक्षत्रको जो इस भरतक्षेत्र में काल चल रहा है वह अवसर्पिणीका ग्रामसे वहिर्भागमें पहुंच उत्सर्गक्रिया (विसर्जन पांचवां दुःषमा है। (जैन हरिव'श ७ सर्ग ५५-६२ श्लोक ) होमादि) लगाये। अथवा माघ मासवाले शुक्लपक्षके २ अवगमनशील, चढ़नेवाली। प्रथम दिनको पूर्वाह्नमें यह उत्सर्ग कर्म करे। उत सर्पित (सं० त्रि०) १ निस्यन्दित, सरका जो व्यक्ति माघ मास की पूर्णिमाको उपाकर्म करता है, हुआ। २ ऊर्ध्वगमनशील, चढा हुआ। वही माघको शुक्ल प्रतिपदको उत्सर्ग लगाता है। उत सपिन् (सं० वि०) उत सर्पति, णिनि । १ जव । ग्रामके वहिर्भागमें इसी प्रकार यथाशास्त्र देवका गामी, चढनेवाला , २ उल्लङ्घनकारी, लांघनेवाला। उत्सर्ग कर एक पक्ष अहोरात्र वेदाध्ययनमें विरत उत सर्या (स. स्त्री०) उत् सृ-ण्यत -टाप । ऋतु- रहना चाहिये। इस उत सर्ग-क्रियाके पीछे प्रति मती अथवा गर्भयोग्यावस्थावालो गवी, गाभन होनेके शुक्लपक्ष में संयतभावसे वेद पढ़ते हैं। फिर कृष्णपक्षमें काबिल गाय । (जटाधर) समुदाय वेदाङ्गका पाठ करना चाहिये। | उत्सव ( स० पु०) उ-सु-अच् । १ प्रारम्भ, आगाज, उत सर्जनी ( सं० स्त्री० ) गुदका द्वितीय वलि, शुरू। (ऋक् १।१००८) २ आनन्दजनक व्यापार, . मिकदके चमड़े को दूसरी तह। जलसा, खुशौका काम। ३ आनन्द, खुशी। ४ उत सेक, उत स (सं० पु०) १गमन वा निस्यन्दन, सर गर्मी। ५ इच्छाप्रसव, खाहिशका उभार। ६ कोप, काव। २ स्कोति, सूजन, चढ़ाव।। गुस्सा। ७ उन्नति, • तरक्की। ८ अभुदय, उरूज, उत सण (सलो०) उत-रूप भावे ल्य ट। १ उल्ल- बढ़ती। ८ अध्याय, बाब, किताबका एक हिस्सा। ङ्कन, लंघाई । २ ऊर्ध्वगमन, चढ़ाव। ३ त्याग, तक। उत्सवसङ्कत (सं० पु०) १ पुष्करारण्यवासी जाति उत सर्पिणी (स• स्त्री० ) १ जैनोंके कालका विशेष, पुष्करके जङ्गलमें रहनेवाले लोग। (भारत विभाग। जैनशास्त्र में व्यवहारकालके अनेक अपेक्षा सभा ३१ अ०) २ म्लेच्छ जाति विशेष। ये लोग सात ओंसे अनेक भेद कहे गये हैं। उनमें एक अपेक्षासे दो प्रकार के होते हैं। भारतके उत्तर पावत्य प्रदेश में इनका भेद होते हैं-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। जिस कालमें वास था। इनके जनपदको भी उत सवसङ्केत कहते भरत और ऐरावत क्षेत्रके जीवोंकी आयु शरीर संपत्ति हैं। (भारत सभा २६ और भीष्म ६ अ०) सुख आदिको वृद्धि होती चली जाय उसे उत्सपिणी उतसाद (दै० पु.) यज्ञीय पशुका छेदनप्रदेश । काल कहते हैं और जिसमें उत्तरोत्तर हानिही होती उतसादक (सं. वि.) नष्ट करनेवाला, जो बर-- जाय वह अवसर्पिणी हैं। "भरतरावतयोई विज्ञासौ षट्समयाभ्या- 'बाद कर देता हो।