उदयपुर वा मेवाढ़ २३५ १५७२ ई० में उदयसिंहके मरनेपर प्रतापसिंहने पिल-। रक्षा नहीं। उसपर भी एक बार प्राण पर्यन्त लमा सिंहासन पाया था। उनके जैसे उच्चदय, स्वदेश जातीय गौरव बचानेको सकलने अस्त्र उठाया था। प्रेमिक और कष्ठसहिष्णु वीरपुरुष अति अल्प ही घोरतर युद्धके बाद राजपूत हारे। राणा अमरने भारतवर्ष में उपजे हैं। वे स्वदेश और स्वजातिके लाचारीमें दिल्लीखरका प्रानुगत्य माना था। किन्तु लिये बार बार अकबर बादशाहसे लड़े। सकल जहांगीरने उन्हें यथेष्ट सम्मानित किया। फिर भी युद्दमें हारते भी उन्होंने मुगलोंकी अधीनता मानी राणा प्रतापसिंहके पुत्र अमर मुसलमानको अधीनता न थी। प्रतापने स्वाधीनता बचानको अपना राज्य सह न सके थे। उन्हें समझ पड़ा-मुसलमानके अधीन "धन गंवाया, पर्वत-पर्वत एवं वन वन चकर लगाया रहनेसे राजपद छोड़ने में ही मुख है। अमरने अपने और गुहादिमें डेरा जमाया। ऐसा भी सम्बल न था, पुत्र करणसिंहको मेवाड़का राज्य सौंप वानप्रस्थ पकड़ा जिससे कायको लेश मिलते ही दिन कटता। बहु था। १६२८ ई०को करणसिंहके मरने पर तत्पुत्र कष्टके बाद विधाता उनपर प्रसन्न हुये। उसी समय जगतसिंह राणा बने। वे १६५४ ई०को मेवाड़के भामशाह नामक एक मन्त्रीने धन द्वारा उनका सिंहासनपर बैठे थे। उन्होंके राजत्वकालपर औरङ्ग- साहाय्य पहुंचाया था। प्रताप फिर राजपूतोंको | ज बने जिजिया कर लगाया। यह कर मेवाड़पर जोड़ देवार नामक रणक्षेत्रपर उतर पड़े। उनके बांधने के लिये मुग़ल सैन्य भेजा गया था। राजपूतों में साहाय्य और रणको दक्षतासे मुगल फौज हार गयो। किसीने जिजिया कर देना न चाहा। उसौसे युद्ध प्रतापने अल्प दिनके मध्य ही समस्त मेवाड़ छोड़ाया हुया था। राजसिंहने बार बार मुगल सैन्यको लिया। फिर उन्होंने समस्त मेवाड़का एकेश्वरबन वाधीन हराया। १६८१ ई० में औरङ्गजेबने जजिया कर भावसे जीवनका अवशिष्ट काल बिताया। प्रतापके उठा डाला। इसौ वर्ष राजसिंह मरे थे। उनके पुत्र मरनेपर तत्पुत्र अमरसिंह राजा हुये थे। प्रतापसिह देखो। अमर (२य) राणा बने। इन्हों राणाके समयपर दिल्लोके सम्राट बनने पर जहांगीरने मेवाड़का मारवाड़, मेवाड़ और जयपुरके राजगणने मिलकर राज्य अपने वशमें लाने के लिये अनेक बार यत्न लगाया, मुगल राज्य मेटनेको चेष्टा लगायी थी। मुसलमानोंने किन्तु किसी प्रकार कुछ कर न पाया। वह अमर जहां जहां देवदेवीके मन्दिर तोड मसजिद बनायो. सिंहसे दो बार सम्पूर्णरूपमें हारा था। अवशेषपर | १७१२ई में एकत्र हो राजपूत राजगणने वहीं वहीं जहांगीरने प्रतापसिंह भ्राता शक्तिसिंहको मिलाया ध्वसको धारा बहायौ। किन्तु यह शुभदायक जातीय और तदीय भ्रातुष्य त्र अमरके विपक्ष लड़ाया। सात मिलन बहु दिन टिका न था। भारतका अदृष्ट वर्ष बाद शक्तिसिंह जातीय विद्वेषके लिये मन ही मन बहुत ही अशुभ निकला। शुभ मिलनमें विच्छेद पड़ा शरमाये थे। फिर उन्होंने मेवाड़को प्राचीन राजधानी था और मारवाड़के राजा जगत्सिंहने सन्धि कर चित्तौर अमरको सौंप दी थी। इस संवादसे अपनी कन्याका विवाह सम्राटसे कर दिया। कुछदिन जहांगीरको असीम क्रोध आया था। उन्होंने अपने बाद राणा अमर भी दिल्लीखरके साथ सन्धिसूवमें बंध पत्र परवीजको ससैन्य अमरके विपक्ष भेजा। परवीज, गये थे। १७१३ ई०को अमरके मरनेपर तत्पुत्र भी हार गये थे। फिर मुग़ल-सेनानायक महब्बत संग्रामसिंहको पिटराज्य मिला। इस समय मुगल खान बडो भारी सेना ले मेवाड़के अभिमुख चले। सम्राटको अवस्था क्रमशः बिगड़ रही थी। शाहजहान् प्रवत अधिनायक बने थे। इतःपूर्व | मुगल बादशाहोंसे चौथ लेने लगे। १७६३ ई में बहुबार लड़ राजपूतोंका सैन्य क्रमशः घट रहा पेशवाने बाजीरावसे सन्धि जमायी थी। इस सन्धिक था। फिर असंख्य मुग़ल सैन्यके सम्मुख अस्त्र पत्रानुसार राणा मराठोंको १६०६००० रु. चौथमें 'चलानेको पड़ी। राजपूत वीरगणने देखा-अब देने के लिये सम्मत हुये।
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२३६
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