पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२४६

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उदर २४५ यकत्से बड़ी पथरी खिसक अन्त्रके किसी स्थानमें पड़। मात्र है। यक्कतको विशुष्कता, पुरातन प्लीहा, पुरा- जानेसे भी क्षत और छिद्र हो सकता है। तन अन्त्रवेष्टप्रदाह, पुरातन रजातिसार प्रभृति नाना अन्त्रमें छिद्र पड़ते समय हठात् रोगीको अवस्था प्रकार रोगको शेष दशामें दकोदर हो सकता है। बदल जाती है। पेटमें दुःसह वेदना उठती है।। फिर किसी व्यक्तिको शैत्य देकर भी यह रोग पकड़ किसीको अधिक और किसीको अल्प हिक्का पान लेता, परन्तु ऐसा दकोदर सुसाध्य है। लगती है। फिर किसी किसी रोगीको कुछ भी किसी सञ्चित पोड़ापर शिरासमूहमें रक्त न पहुं- हिक्का नहीं आती। जोर जोरसे वमन होता है। चने किंवा आण्डलालिक पदार्थ स्वल्प पड़नेसे प्रथम कपालपर विन्दु विन्दु पसीना निकल आता और उदरमें नहीं-अन्ववेष्ट झिल्ली में जल जमता है। पूर्व किसीका सर्वाङ्ग पसीनेसे भर जाता है। रोगी पैर हस्तपाद पर शोथ चढ़ आता, पश्चात् उदरमें जल समेट सुस्थिर भावमें पड़ा रहता, किन्तु हिलना डुलना भर जाता है। किन्तु यवत्को पौड़ामें हस्तपादपर या बात करना नहीं बनता। निश्वास छोड़ने में भी शोथ न चढ़ते भी दकीदर हो सकता है। . कष्ट लगता है। नाड़ी क्षीण, चञ्चल और शब्दहीन किसी किसी रोगोके पेट में अल्प परिमित जल । मुखको श्री कुम्हलाती और जिह्वा रहता और दूसरोंके उदरमें आधे मनसे भी मुखाती है। अतिशय तृष्णा लगती है। पेटको ज्यादा जल मिलता है। एक दकोदरवाले रोगीके अल्प दबानेसे ही कष्ट मालम पड़ता है। ऐसी अव पेटमें जलके साथ छः बड़े बड़े कोड़े भी थे। पुरातन स्थामें रोगी अवसन्न हो शीघ्र प्राण खो देता है। सड़ेगले सहीजनके पेड़में ईषत् हरिद्रावर्ण बड़े मोटे किसीको अवस्था कुछ दिनको थोड़ी बहुत सुधर जाती मोटे कोड़ों-जैसे वे रहे। मस्तक, मुख तथा मल- परन्तु परिशेषमें उसे मृत्य धर दबाती है। अन्नमें हार वष्यावर्ण और पृष्ठ ग्रन्थियुक्त था। लम्बाई तीन छिद्र पड़नेसे किसी किसी रोगीको अन्त्रवेष्ट झिल्लीपर और चौड़ाई डेढ अङ्गल बैठी, मुखमें कतरनी-जैसी प्रदाह उठता है। तौक्षण दंष्ट्रा थी। सकल हो कोट जोवित थे। उदकोदर, दकोदर वा जलोदरका लक्षण चरकमें जल और खाद्य ट्रव्यके साथ अनेक कोट उदरमें पह- इस प्रकार बतलाया है-जो व्यक्ति अधिक खाता| चते हैं। पेटमें उनके न मर मिटनेसे नानाप्रकार किंवा पग्निका तेजः गंवाता तथा अपनकी क्षीण एवं पीडा उठती है। फिर क्षुद्रावस्था पर अन्त्रको वश बनाता, वह अधिक परिमाणमें जल पीनेसे क्षुधा काट वह अन्त्रवेष्ट झिल्लौमें घुसते हैं। परणामको मान्य रोग बढ़ाता है। उस समय वायु क्लोम स्थानमें उन्होंको उग्रतासे दकोदर रोग लग जाता है। इस ठहर जाता है। क्रमशः सकल स्रोतका पथ रुकता रोगमें रोगी प्रायः दश वत्सर जीता है। और पीत जलसे कफ बढता है। परिशेषमें उभय दकोदरका जल अनेक स्थानोंपर अधिक परिष्कत स्वस्थानसे पीत जल बढा उदर रोग उत्पन्न करते हैं। रहता आर किसीके मैला और किसीके पेटमें इस उदररोगमें भोजनको इच्छा नहीं रहती। तृष्णा पोला भी पड़ता है। इस जलका सन्ताप गात्रके बहुत लगती है। गुदस्राव, शूल, श्वास, काश और सन्तापसे मिलता है। हां, इसमें लवणका अंश, दौर्बल्य हुआ करता है। पेटपर नाना वर्णको रेखा आण्डलालिक पदार्थ और फेब्रिन होता है। पेटमें तथा शिरा देख पड़ती और आघात लगानेसे जलपूण अधिक जल सञ्चित होनेसे यकृत, प्लीहा और वृक्कक मशकको तरह कंपकंपी उठती है। तीनो छोटे पड़ जाते हैं। हृदय और उदरमध्यवेष्ट किन्तु डाकरीके हिसाबसे यह आसाइटिस (Diaphragm) ऊपरको उड़ने लगता है। (Ascites) रोग है। दकोदर स्वयं कोई विशेष व्याधि दकोदर होनेसे प्रथम पेटमें भार मालम पड़ता . नहीं-पन्य अन्य रोगको शेष अवस्थाका एक लक्षस- है। क्षुधा कम लगती है। कोष्ठको शदि नहीं Vol III. 62