पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२५६

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- उगाढ़-उद्याभ २५५ उहाढ़ (म त्रि०) अतिशय अधिक, बहुत ज्यादा।। होते हैं-१ प्रस्ताव, २ उद्गीथ, ३ प्रतिहार, ४ उपद्रव, उद्गाता, उगाट देखो। ५ निधन, ६ हिङ्कार और ७ प्रणव। उद्गाता जो उद्गातुकाम (स त्रि०) गान करनेको अभिलाषी, साम गाता, वही उद्गीथ कहाता है। साम देखो। जो गाना चाहता हो। वर्षाकालको उहीथ गाया जाता है। उपनिषत्के उगाट (स० पु०) उत्-गै-टच् । १ सामवेद मतसे पशु में अश्व, पञ्चप्राणमें चक्षु और सप्तविध वाक्यमें गायक। २ ऋविग्भेद। उद्धृत शब्द हो उद्गीथ है। छान्दोगाके कथनानुसार- उद्गाथा ( स. स्त्री०.) आर्याछन्दोभेद । यह “उहीथ ही साम है। जो उहीथ (ॐ) गाता, उसका गौति सदृश रहती और अपने चार पादमें क्रमशः निश्वास-प्रश्वास नहीं पाता-जाता। 'उत्' प्राण है। बारह तथा अट्ठारह मात्रा रखती है। क्योंकि इसी प्राणवायुसे लोग ऊपर चढ़ते हैं। 'गो' उद्गार (सं० पु०) उत्-ग-धज । उन्नयोग:। पा वाक् और 'थ' अन्न है। कारण अन्य हारा सकलको शश६ । १ वमन, के, उलटी। २ मुखसे वायुका स्थिति होती है। 'उत्' स्वर्ग, 'गो' आकाश और 'घ' निर्गम, डकार। ३ निःसरण, टपकाव, चुवाव । पृथिवी है। 'उत्' सूर्य, 'गौं' वायु और 'थ' अग्नि ४ उच्चारण, कहाई। ५ निष्ठीवन, थूक । ६ प्राधिक्य, है। 'उत्' सामवेद 'गो' यजुर्वेद और 'थ' ऋग्वेद बढ़ती। ८ गर्जन, फुफकार। है। लोगोंको उद्गीथका ध्यान करना चाहिये ।" उद्गारकमणि (सं० पु०) प्रबाल, मूंगा। (छान्दोग्वउ० १ प्र० ३ ख०) २ सामवेद का द्वितीय अंश । उद्गारशुद्धि (सं० स्त्री०) उद्गारका अनवरोध, | ३ ओङ्कार। ४ भवपुत्र। (विष्णुपुराण २१०३८) ५ वेदके सधम अम्लोहारका भाव। एक टीकाकार। उद्गारशोधन (सं० पु०) उद्गारं शोधयति, शुध-णिच्- | उदगीरण, उगिरण देखो। ल्य । श्वेतजीरक, कृष्णजीरक, काला या सफेद जीरा। उदगीण (सं० त्रि०) उत्-ग-उ। १ वमित, के उद्गारशोधनी (सं० स्त्री०) जीरक, जीरा। किया हुआ। २ उच्चारित, कहा हुआ। ३ उदगत, उद्गारिन् (सं० त्रि०) उत्-ग-णिनि । उद्गार- उत-ग-णिनि । उद्गार- उठा हुआ। ४ अनुरन्जित, खश किया हुपा । युक्त, उगलनेवाला। ५ निगेंत, निकला हुआ। ६ प्रतिविम्बित, झलका उदगिरण ( स० लो०) उत्-गृ-ल्य ट। निपात- | हुआ। नात् इत्वम्। १ उद्गार, डकार। २ वमन, के, उद्गूर्ण (स'• त्रि०) उत्-गूर्त । उत्तोलित, उलटौ। ३ कण्ठखरभेद, गलेको घरघराघट। | उछाला हुआ। २ उद्यत, मुस्तै द, तैयार। उद्गीत ( सं० त्रि. ) उत्-गै-क्त । उच्चैःस्वरमें उग्ग्रथित (सं० त्रि.) उत्-ग्रन्थ-क्त । १ उपरि भागमें गौत, बुलन्द आवाजसे गाया हुआ। वड, ऊपरी हिस्से पर बंधा हुआ। २ मुक्त,खुला हुआ। उदगीति (सं० स्त्री०) उत-गै भावे तिन । १ उच्चः | उग्रन्थ (सं० त्रि.) उन्म क्त, खुला हुआ। (पु.) स्वरसे गान, ऊंची आवाजका गाना। कर्मणि क्तिन् । उत्-ग्रन्थ-घञ् । २ उन्मोचन, छोड़ाई। ३ अध्याय, २मात्रावृत्त भेद। इसके प्रथम एवंटतीयमें पन्द्रह, । भाग, बाब, हिस्सा। द्वितीयमें बारह और चतुर्थ पादमें अट्ठारह मात्रा | उद्ग्रभण (वै ० क्लो०) उत्-ग्रह-ल्य ट् वेदे हस्य भः । लगती हैं। १ग्रहण, पकड़, ऊपर पकड़के दान । (काल्या० श्रौ०१५।५।११) “पाशिकलहितय' व्यात्ययरचितं भवेद्यस्याः । उद्ग्रह (सं० पु.) १ जव ग्रहण, उठाव । २ धर्म सोहीतिः किल गदिता तइत्यत्य शभेदसंयुक्ता ॥” (वृत्तरत्नाकर)| द्वारा किया जानेवाला काय।। उद्गीथ (सं० पु.) उत्-गै-थक् । गोदि । उण २।१०। । उद्ग्रहण (सं० लो०) ऊर्ध्व ग्रहण, उठाव, चढ़ाव । १ सामगानका अवयवभेद । सामके पञ्च वा सप्त अवयव | उग्राम (वै० पु०) उत्-ग्रह-घञ् । वैदे हस्य