उद्भिविद्या साधनमें लगनेसे वीजान्तर्गत सञ्चित खाद्य द्वारा उसे सब कोई मृणमूल कहता है। इस श्रेणीके उद्भिद् पुष्ट हुआ करता है। भ्रूणके एक पार्श्व से किसी उद्भिद् पृथिवीके मध्य अधिक हैं। केवल जलमें प्रकारका कोमल पदाथै वीजके : अधिकांश अङ्गमें | रहने और अङ्गुर उत्पन्न करनेवाले उद्भिद्का मूल भर जाता, जो खेतसार वा धातुविशेष (Albumen) भूमिको न भेद जलपर ही उतराता है। इसीका नाम कहाता है। अगरोतपत्तिके समय स्वाभाविक निय- जलीय मूल है। जैसे-काई प्रभृति। कोई कोई मानुसार उक्त श्वेतसार शर्कराका आकार बनाता है। उद्भिद न तो मृत्तिकामें घुसता और न जलमें बसता, शर्कराको जल में घुलनेसे बालोद्भिद् सहज हो चाट | आलोक एवं वायु लेने के लिये बल्कल वा पर्वत विवरमें लेता है। फिर अङ्गुरको उत्पत्तिके कालपर उद्भिद्को | धंसता है। इसका मूल हरा और काण्ड-जैसा होता भिन्न भिन्न श्रेणी में बांट देते हैं। एक वीजपत्र है। एतद्भिन्न दूसरे प्रकारका भी मूल है। उसे निकालनेवालेका एकपर्णिक (Monocotyledon) परभृत मूल कहते हैं। क्योंकि वह अन्य तरकी और दो वीजयन निकालनेवालेका विपर्णिक (Dicoty त्वक् फाड़ जहां पुष्टिकर रस प्राता, वहीं पहुंच जाता ledon) नाम है। है। वट प्रभृति वृक्षके काण्डमें ईषत् पोतवर्ण मूल एकपणिक उभिद जबतक जीता, तबतक मेरु- लटकते देख पड़ता है। वह साधारण नहीं। उद्भिदके दण्ड के अन्तिम भागसे नहीं-मध्यभागसे कितनी हो। तत्त्वज्ञ उसे असाधारण वा अनियत मूल कहते हैं। पत्ती फूट पनपा करता है। किन्तु हिपणिकका उक्त प्रथमावस्था में काण्डका नाम मुकुल (Plumule) भाग दीर्घ होकर भूमिमें शाखा-प्रशाखा डालता है।। है। उसके अन्त्य भागमें एक कलिका आती, जो अधिकांश एकपर्णिकमें शाखा नहीं-केवल मस्तकको अन्त्य कलिका या मांझ कहाती है। उसी. कलिकापर दिक् कितनी ही पत्ती पड़ती है। ताल खजूरादि | काण्डको वृद्धि निर्भर है। उससे वोजपत्र निकलते हैं। एकपर्णिक वा एकपत्रोत्पत्तिक हैं। फिर आम्न | काण्ड कई प्रकारका होता है,-१ भूपृष्ठशायी, जम्ब आदि हिपरिक वा हिपत्रोत्पत्तिक होते हैं। २ जवंग, ३ लतायुक्त, ४ लम्बमान और ५ श्रारोही। पत्र सकलको साधारणतः किसलय, वृन्त और | प्रत्ये क शब्दमें तत्तत् विवरण देखो। मूलमें नहों-पत्र, वल्कल वृन्तकोष तीन भागमें बांटते हैं। वीजपत्रका वृन्त | वा अन्य उपकरण काण्ड में रहता है। काण्डको जिस और वृन्तकोष अधिक पनपनेसे मेरुदण्ड निकल आता जिस गांठसे पत्तो पाती, वह पर्वसन्धि ( Node) है। वीजपर अकरोत्पादक शक्तिका प्रभाव पड़नसे | कहाती है। सन्धिहयके मध्यस्थित भागका नाम उभिदमें मूल लगता है। अन्तःपर्व ( Inter-node) है। काण्डका एक अंश वीजसे प्रथम जो इन्द्रिय निकलता, वही मूल | मट्टीमें रहता है। मूलको कलिका-विकाशकी क्षमता ठहरता है। एकपर्णिकके अन्तिम भागमें फैल जो | नहीं। मृण्मध्यस्थ काण्डसे किसो किसी पेड़की मूल चलता, वह गौण रहता है। फिर हिपर्णिकमें | कोपल निकल पाती है। जैसे-केलेसे। अनेक व्यक्ति अन्तिम भागके स्वयं बढ़नेसे उपजनेवाला मूल मुख्य धान्तिक्रमसे मट्टीके मध्यस्थ काण्डको मूल-जैसा है। मूल प्रधानतः मिथ वा शाखान्वित और तान्त- समझते हैं। वस्तुतः जो कदलीकाण्ड कहाता, वह विक वा तन्तुवत् बहु शाखायुक्त, दो प्रकारका होता | अत्यन्त विस्तृत पत्रवृन्तसमूहका कठिन काण्डाकार है। वह अधोगामी है। उसमें अन्त्यभागके रसा-| होनेके सिवा दूसरा कोई द्रव्य नहीं। उसका नाम कर्षणको शक्ति रहती है। फिर प्रत्येक ही मूलका | मूलाकार काण्ड ( Rhizoma) है। चक्षुःसंयुक्ता अन्त्य भाग बर्धिष्णु और रसाकर्षी है। मृण्मध्यस्थ काण्डको स्फीतकाण्ड ( Tuber ) कहते । - मूल तीन प्रकारका होता है-मृण्म ल, जलीय हैं। जैसे-आल। कभी कभी काण्डके पत्र सम्पूर्ण मूल और वायव मूल। जो मूल मृत्तिकामें रहता, | खिल एक वा ततोधिक कठिन वस्तु उत्पन्न करते हैं।