उद्दाहिक-उद्दिड़ाल २७७ उद्दाहिक (सं.वि.) उहाहः प्रयोजनमस्य, ठक।, कुमारी पन्तरीप पर्यन्त सर्वस्थानके नद, उपनद और विवाहसम्बन्धीय, भादौके मुताल्लिक। इदमें इसको देखते हैं। इसको देहका सङ्गठन सकल "नोडाहिकेषु मन्त्रेषु विधवावेदम क्वचित् ।” (मनु १६५) जन्तुओंसे भिन्न है। इसका अङ्ग चपटा और अलग अलग उद्दाहित (सं० त्रि.) उत्-वह-णिच-क्त । १ विवाहित रहता है। प्रत्यङ्ग सुदृढ़ होते भी क्षुद्र होते हैं। पैरको शादी किये हुआ। आगमके मतसे कलिकालमें एड़ी अनाच्छादित और तलभाग जालाकारसे संयत आगमको छोड़ अपर शास्त्र के अनुसार उहाहित होने- है। गात्रको लोमावली निविड़ और क्षुद्र होती वाली नारी गर्हित है। २ उत्तोलित, उखाड़ा हुआ। है। तन्मध्य उपरिभागके लोम कोमल और निम्न- उद्दाहिन् (सं० वि०) १ उत्तोलन करनेवाला, जो | भागके अति चिक्कण रहते हैं। चक्षुके पपोटे किञ्चित् उठाता हो। २ विवाहसम्बन्धीय, शादीके मुताल्लिक। सूक्ष्म त्वक्से निर्मित और अधिकतर पक्षीजाति- उद्दाहिनी ( स० त्रि०) उद्दाह-इनि-डोप् । रज्जु, रस्सी । जैसे देख पड़ते हैं। दन्त दृढ़ एवं तीक्ष्ण होते हैं। उद्दाहु (सं० त्रि.) ऊर्ध्व वाहु, हाथ उठाये हुआ। । भारतवर्षमें तीन-चार प्रकारका उहिड़ाल मिलता उहाहुलक, उद्दार देखो। है। परन्तु उन सबमें 'जद' प्राय अधिक देख पड़ता है। उद्विग्न (सं० त्रि.) उत्-विज्-ता, वादित इति नेट। अदबिलावके बाल बादामी या धूसर होते हैं। १चिन्तित, फ़िक्रमन्द। फिर किसीके खेत और किसौके पीत वर्णका धब्बा "नोविनश्वरते धर्म नोनिश्चरते क्रियाम् ।" (भारत पादि) भी पड़ा रहता है। नीचे की ओर लोम पीताभ अथवा २ व्याकुलित, बेचैन । ३ क्षुभित, भौचक्का । रताभ खेत लगते हैं। मुख कितना हो साफ़ होता उद्विग्नचित्त (सं० वि०) दुःखित, अफसुर्दा । है। किसीके कर्णदेशमें नारङ्गीके रङ्गजैसी भाभा उहिजमान (स. त्रि.) भयभीत, घबराया हुआ। [ झलकती है। फिर किसीका समस्तं देह पांशुवर्ण उद्दिड़ाल (सं० पु०) भूचर और जलचर जन्तुविशेष, रहता है। यह पुच्छ समेत प्रायः तीन साढ़े तीन हाथ ज़मीन और पानीमें रहनेवाला एक जानवर। तक लम्बा बैठता है। वासस्थान अत्यञ्च पावत्य निर्भरके ( Lutra) संस्कृत ग्रन्थकारोंने इसके जलविड़ाल, जल निकट प्रस्तर अथवा नदनदीतीर १०।१२ हस्त मृत्ति- मार्जार, जलनकुल इत्यादि नाम लिखे हैं। काके नीचे गमें होता है। यह प्रधानतः मत्स्य वैदिक काल में इस जन्तुको 'उर्दू कहते थे। शुक्ल खाकर जीता; मछली न मिलने पर कोड़े, मकोड़े यजुर्वेदमें लिखा है- या छोटे चिड़ेके पकड़नेस भी काम चला लेता है। "सुपर्णस्ते गन्धर्वाणामपामुद्रोमानाइश्यपो।” (२४।३७) ऊदविलाव पालनेसे हिल जाता है। कितने ही धीवर भिन्न भिन्न देशके शब्दोंसे इस जन्तुवाचक 'उद्र इसे पालते हैं। जब वे जाल लगाते, तब अदविलाव नामका समधिक ऐक्य लक्षित है। यथा-वैदिक आगे पहुंचकर मछलियोंको उसके पास खदेर लाते 'उद्र,हिन्दौ 'जद', डेन्म 'उद्दर' वा 'मोहर', ओलन्दाज है। इससे मछली पकड़ने में सुभौता पड़ता है एवं स्विस तथा जमैन ‘ोत्तर', अंगरेजी ‘ोहर', | सुनने में पाया-किसी आदमौने एक जदबिलाव पाला फान्सीसी 'लुटर', इटलीय 'लोद्र और स्पेनीय, लाटिन । था। वह कुत्तेकी तरह प्रभुको आज्ञा मानता प्रभृति भाषाओं में 'लुट्टा' कहते हैं।* और जलाशयके निकट इङ्गित करते ही मछली उहिड़ाल पृथिवौके प्रायः अधिकांश देशों में रहता | पकड़ लाता। वयस बढ़ने पर जब कुछ उसका है। तन्मध्य भारतवर्षीय उत्तर हिमगिरिसे दक्षिण पराक्रम बढ़ा, तब ग्रामके मध्य किसी घरमें बहुत मछली देखने पर निकालने का अभ्यास पड़ा। काट • मरहठे अलमाचार, तैलङ्गो मौरकुक पर्णत पानीका कुचा, खानेके भयसे गृहस्थ कुछ बोल न सकते थे। इस कनाड़ी नौरनाइ और हिन्दुस्थामी अदविलाव कहते है। वर्तावसे प्रभु क्रमशः अत्यन्त विरक्त हो एकदिन Vol III. 70
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