२६२ उन्माद-उन्मादन है। क्योंकि इन दोनों में दृष्य एवं दोषको तुल्यता । वमन एवं विरचनादिसे कोष्ठ, हृदय, इन्द्रिय तथा विद्यमान है। मस्तक शुद्धः होनेपर रोगी प्रसन्नता, स्मृति और संज्ञा सुश्रुत कहते हैं-सकलप्रकारके उन्मादमें चित्तको पाता है। किन्तु शुद्ध हो जाते भी यदि उसके आच- आल्हादित रखना प्रधान कर्तव्य है। मद रोग रण अयोग्य देखाते है, तो नस्य सुंधाते और अञ्जन अर्थात् सन्मादकी प्रथमावस्थापर मृदु क्रिया किया लगाते हैं। ऐसे स्थलपर ताड़न और मनः बुद्धि तथा करते हैं। विषजन्य रोग लगते भी विक्रियाक साथ | देहके प्रति उद्देग प्रापण अतिशय हितकर है। साथ मृदु क्रिया कही है।* फिर अतिशय शक्तिसम्पन्न होनेपर कड़े कपड़ेसे बांध और अंधेरे घरमें डाल रोगी दबाया जाता है। ब्राह्मणयष्टि, पुरातन कुमाण्ड, शाहपुष्यो एवं तुलसी पृथक् पृथक् इन्द्रयव तथा मधु मिलाकर घरमें लक्कड़ पत्थर बिलकुल रहना न चाहिये । खिलानेसे उन्माद रोग मिट जाता है। . उन्मादके रोगीको सुधारनेका उपाय- हिङ्ग, सैन्धव लवण, मरिच, पिप्पली और शुण्ठी "तर्जनं वासनं दानं सान्त्वनं हर्षण भयम्। प्रत्येकका दो पल कल्क छ: सेर घत और चतुर्गण गो- विस्मयो विस्म ते हेतुर्नयन्ति प्रकृति मनः ॥" (चरक) मूत्रमें पकाकर देनेसे उन्माद निश्चय आरोग्य होता है। तर्जन, नासन, दान, सान्त्वना, हर्ष, भय एवं विस्मय सहद्य इस रोगमें बाषणाद्य-वटिका और कल्या- मनको भटका कर प्रकृति पर पहुंचा देता है। " णक, क्षौरकल्याण, चैतस, महापैशाशिक, हिङ्गाद्य डाकरीवो मतसे रोगीका परिधेय वस्त्र सर्वदा तथा लशुनाद्य प्रभृति घृत खिलाते हैं। उष्ण रखा जाता, भौगने या शीतल पड़ने नहीं पाता। समुदायके मध्य जिसमें रोगी क्रोध और आक्रो देहके मध्य भागपर फ्लाबेल लिपटा रहना अच्छा । शसे हस्त उठा निष्क्रिय भावसे अपने या अन्य के शरीर है। रोगी रोयको बनी या मुलायम चटाई पर पर छोड़ देता है, वही उन्माद रोग असाध्य होता नर्म तकियाके सहार लिटाया जाता है। शयन कालमें है। फिर जिस उन्मादमें चक्षुसे अश्रु चलता, मेढ़से देहके अपर अङ्ग प्रत्यङ्गको अपेक्षा मस्तक कुछ रक्त बहता, जिवापर क्षत पड़ता और नासिकासे जल उन्नत और अनावृत रहना चाहिये। मूर्छा पानेसे गिरता, वह भी आसाध्य-जैसा ही होता है। अथवा उसे भूमिपर लेटाते और आहारादि अवस्थालें देख रोगोंके ताली बजाने, सर्वदा चिल्लाने, अपने ममस्थान- भालकर खिलाते हैं। पर चोट लगाने, दुर्ण देखाने, वृषणासे घबराने - आलोपाथोक मतमें उन्मादके रोगीको प्रथमा- और दुर्गन्ध एवं हिंस्रक बन जानसे उन्माद अच्छा वस्थामें ठण्डा रखनेको सविशेष चेष्टा करना चाहिये। नहीं होता। इसपर नाइट्रेट अव पोटास, म्यरिएट अव अमोनिया, प्रथम रोगीको शान्त रखना चाहिये। किन्तु सिलुशन एसैटेट अव अमोनिया मिश्र, स्पिरिट अव पित्तजनित उन्मादमें विशेषतः वमन करा देते हैं। नाइट्रिक ईथर, टार्टाराइस अञ्जन और कपूरका जुलद देनेसे विशेष उपकार पहुंचता है। कपूर, कालोमल "उन्मादिषु च सषु कर्याचित्तप्रसादनम् । और बिनिगार प्रभृति भी विशेष लाभदायक हैं। - मृटुयूर्व मदेऽप्ये व क्रियां विद्वान् प्रयोजयेत् । फिर रोगीको अवस्थाके अनुसार नानाप्रकार औषध विषजे मृटुपूर्वाञ्च विषघ्नौं कारयेत् क्रियाम् ॥" दिया जाया करता है। (सुध त उत्तरतन्त्र ६२ १०) "सब ष्वपि तु खल्वेष यो इस्तावुद्यम्य रोषस रम्भान्निःस'ज्ञोऽन्येष्वा-1 उन्मादक ( स० त्रि. ) उत-मद-णिच-गख ल । त्मनि वा पातयेत् सोह्यसाध्यो शेयस्तथा साधु नेवी मैदप्रवृत्तरतः क्षतजिनः | उन्मादजनक, नशा लाने या पागल बनानेवाला। : प्रस तमासिकश्चिद मानमर्मा प्रतिहन्धमानपाणिः सततं विकूजनं दुर्वर्णरूपातः | उन्मादन (सं० पु०) उत्-मद-णिच्-न्यु। १ काम- पुतिगन्धय हिंसाौँ उन्मत्तो जयस्त' परिवर्जयेत् ।" (चरक) . | देवके पञ्चवाणान्तर्गत वाण विशेष। ..
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२९३
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