पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३०६

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उपदंश ३०५ पुरुषके सान्निपातिक उपशमें नाना प्रकारका स्राव : बहुत बढ़ जाता है। उपदंशका क्षत निकलने या पौर नानाप्रकारका क्लेश लगा रहता है। यह असाध्य | सूखनेके १५।२० दिन बीच गिलटी पड़नेसे अत्यन्त है। स्त्रीको होते भी उक्त सकल प्रकारके लक्षण मिलते वेदना बढ़ती है। इसका नाम बद है। कठिन हैं, जननेन्द्रियपर उपजनेवाले शोथमसे फट कर कृमि उपदंशके बाद वद होनेसे प्रायः बैठ, परन्तु निकलते और प्रायः मरण हो जाता है। साधारण बद सचराचर पक जाती है। ___ इस रोगमैं जिसके मेढ़का मांस विशौण और ____ उपदंशका क्षत उठनेसे बद निकलने तक इस कमियों द्वारा भक्षित अथवा समस्त विशीण रूपसे रोगको मुख्य वा प्राथमिक उपदंश ( Primary अण्डकोष मात्र में अवशिष्ट रहता है, चिकित्सकको Syphilis) कहते हैं। यह विष एकवार देहमें वह रोगी उसी समय छोड़देना पड़ता है।* पहुंचनेसे सहज ही दूर नहीं होता। क्योंकि कभी युरोपीय चिकित्सकोंके मतसे १म सहज उपदंश दो वर्ष, कभी दश वर्ष, कभी आजीवन इसका फल ( Simple chanere )में गोल, अगभौर एवं सूक्ष्म लगा रहता है। इसे गोण वा द्वितीय अवस्थाका रक्ताभ रेखावेष्टित धसर वण देख पड़ता है.। मैथनसे उपदंश (Secondary Syphilis) कहते हैं। उप- ४।५ दिन पोछे पुरुषको खांज में एक या दो तीन फुन्सौ दंश प्रथमतः रक्त बिगड़नसे यह अवस्था आया निकल पाती हैं। फिर उसके फटनेसे उपरोक्त क्षत करती है कि गात्र, तास्त्रवण की फुसियां उठ खड़ी होता है। कभी इससे अतिप्रदाह उठ लिङ्ग फूलता होती हैं, क्षत गल जाता है, चक्षु जलते हैं, एवं सन्धि और रक्तवर्ण बनता, और कभी पोप जैसा हो और अस्थि में वेदना बढ़ती है। अत्यन्त पूय छोड़ता है। कभी कभी उक्त प्रकारका उपदंश अधिकतर दुर- श्य कठिन उपदंश ( Indurated chancre) वस्थाको पहुंच जाता है, जिसे तृतीय अवस्थाका उप- लिङ्गके मुण्ड और ऊपरी चमैपर हुआ करता है। दंश (Tertiary Syphilis) कहना पड़ता है। इसमें इसका प्रान्त कठिन, मध्य गभौर गोलाकार, निम्न मुख, कण्ठ और चमै प्रसारित तथा क्षत एवं अस्थिवेष्ट भाग धूसराम और पाश्व उन्नत रहता है। हो जाता है । हृपिण्ड, यवत्, चक्षु, अण्डकोष और ३य क्षयकारी उपदंश ( Phagedonic.chanere ) अस्थिमें अर्बुदादि उठते हैं। स्त्रोको यह रोग लगने- शीघ्र ही बढ़ता और वेदनायुक्त होता है। इसका से गर्भ गिर पड़ता, यकृत् स्थान जलता और प्लीहाका प्रान्त भिन्न भिन्न और आकार असमान होता है। आकार बढ़ने लग जाता है। कभी कभी मून में अधिक क्षत रक्तवर्ण एव दुर्गन्धमय रहता और तरल ले द परिमाणसे खेतसार (Albumen) आता है। फिर कभी बहता है। कभी कभी इसके गभौर पड़नेसे मेढ़ उपदश-जनित फुस्फुस्की पौड़ा चलती है। यही रोग क्रमशः गल जाता है। इसमें वैद्यकोक्ता वातिक, सर्वाङ्गमें जानसे सार्वाङ्गिक उपदंश ( Constitutional पैत्तिक और सैष्मिक तीनोंका लक्षण मिलता है। Syphilis)का नाम पाता है। इस अवस्थामें यह प्रथ- ४र्थ गलित उपदंश (Sloughing chancre) मतः त्वक्, तालु तथा कण्ठ के श्लैष्मिक सूक्ष्म चर्मपर, 'प्रायः लिङ्गके सुण्ड और परिवेष्ट चर्मपर उठता है, एवं पश्चात् अस्थि और अस्थिवेष्टनी पर देख पड़ता है। उस , प्रथमतः कृष्णवर्ण पड़ता, पश्चात् गलने लगता है। समय प्रदाहयुक्त के समान अल्प अल्प ज्वर चढ़ने लग कभी गलितांश गिरते समय लिङ्गकी प्रधान शिरा जाता है। सकल प्रकारको शक्ति घटकर शरीरपर दुर्व- ( Dorsal artery )से रक्त टपकता है। प्रान्त भाग लता आ जाती है। गौणरूपसे यह हृपिण्ड, कण्ठको कटा-जैसा देखाई देता है। इसमें ज्वरका प्रदाह नली, प्लीहा, यक्त्, वृक्क एवं अन्त्र प्रभृति स्थानोंपर

  • "नानाविधनावरुजोपपन्नमसाध्यमाहुत्रिमलीपदंशम् ।

भी आक्रमण करता है। फिर कभी मस्तिष्क, स्नायु, प्रशीर्णमांसं कृमिभिः प्रजग्ध' मुकावशेष परिवर्ज नीयम् ॥” (भावप्रकाश)। शिरा, धमनी और अस्थि आदि पर्यन्त भी इसका वेग Vol III.