३१४ उपनहन-उपनिपात अल्परोम रखना, सर्वदा शुचि रहना, रक्ताम्बर पहनना, ! उपनाहन ( स० लो०) उपनह स्वार्थे णिच स्त्रीसंगादि सजना और गुरु लोगोंसे अभिवादन पूर्वक भावे ल्यट। प्रलेपादि बन्धन, मरहम वगरहका मिलना चादि सकस पाचरण अवश्य पालना पड़ेगा। चढ़ाव । “वेशवार: सक्कशः स्निग्ध': स्याटुपनाहनम् ।” (सुश्रुत ) हमारे प्रादेशके अनुसार तुम्हें गमन, शयन, उप उपनाह खेद (सं० पु.) उपनाह जच्च धर्म, सेंक शन, भोजन एवं अध्ययन करना और हमारे प्रिय- या सपारके लेने से निकला हुथा पसीना। कार्य में तत्पर रहना चाहिये। इससे पन्ट था चलने- उपनासिक (सं० लि.) नासाके समीप रहनेवाला, पर तुम्हें घोर अधर्म बगा और विद्याका सी कोई जो नाक के पास का हो। सद था मिलेगा। हमारे मतानुसार कार्य करत भी उपनिक्षेप (सं० पु०) उप-नि-क्षिप कर्मणि पत्र। तुमले यदि हम अन्वयाचदय रखेंगे, तो हम पाय- संख्या और नामादि वर्णन पूर्वक स्थापित मच्छित द्रव्य, भागी बनेंगे और अपनी विद्याका फल न बखेंगे। जा धराहर गिनगूंथकर रखी जाती हो। “पाधिसौमोपनिःचे पजड़बालधनेवि ना” ( याज्ञवल्क्य २।२५ ) ब्राह्मण सकल जातिको, क्षत्रिय अपनी और वैश्य तथा 'उपनिचे पो नामरूपरल्याप्रदर्शनेन रक्षणार्थ निहितम् ।' ( मिताक्षरा) वैश्य केवल शूद्र जातिको उपनयन कर सकता है। विंशति वर्ष व्यतीत होनेपर भी इस गाँच्छत व्यसे (मुश्रुत स व० २१०) खामोका खत्व नहीं हटता। उपनहन (सं० लो०) उप-जह बन्धने ल्याट । उपनिधाट (स'• त्रि.) उप-नी-धा-टच । १ उप- १ बन्धुनकरण, बंधाई। करण ल्य ट। २ बन्धनके निधि-रूपसे अन्वकै निकट निज द्रव्य खापनकारी, योग्य वस्त्रादि। “मोष्यति च सौमोपनहनमाहर।" ( कात्यायन- धरोहरको तौरपर दूसरे के पास अपनो दोलत रखने- श्री० सू० ७७१) वाला। २ स्थापक, जो रखता हो। उपनागरिका (सं० स्त्रो. ) व्रत्यनुप्रासके छन्दका उपनिधान (स. क्लो०) उप-नि-धा भावे ल्य ट। एक भेद। “माधुर्यव्यजकैवणै रुपनागरिकेष्यते।” (इत्तरबाकर) १ गांच्छत रखनेका काम, धरोहरका रखना । उपनामन् (सं० लो० ) उपाधि, आधा नाम, २ स्थापन, रखाई। प्यारका नाम। उपनिधि (संपु०) उप-नि-धा-कि, कित्वादाकार- उपनाय (सं० पु०) उपनीयते प्राचार्यससीपमनेन, लोपः। उपसर्ग घो: किः । पा शश६२ । १ उपन्यस्त द्रव्य, उप-नौ वञ्। उपनयन, जनेऊना काम । उपनयन देखो। धरोहर। कानन से जो चीज़ मोहर लगाकर रखी उपनायक (सं० पु०) अभिनयक नायकका मित्र । | जाती, वही उपनिधि कहाती है। उपनायन (सं० पु०) उप-नो स्वार्थ णिच-ख्यट करण "याधिः सीमा बालधनं निचे पोपनिधिः कि कर्ट त्वविवक्षायां कतरि ल्य । नन्दियहिपचादिभ्यो ल्यु छि- राजख श्रीवियस्खञ्च न भोगेन प्रणश्यति ॥” (मनु ८१४६) न्यचः । पा श६३४ । उपनयन, जनेऊका काम। उपजयन देखो। बन्धक, क्षेत्रादिको सीमा, बालकका धन, पज्ञात उपनायिक (सं० त्रि.) पथप्रदर्शक, ले जानेवाला। एवं ज्ञात गच्छित द्रव्य, दासी प्रभृति स्त्री, राजख और उपनाह (सं० पु०) उप-नह-घञ् । १ बन्धन, श्रोत्रियका धन भोगसे नष्ट नहीं होता अर्थात् २० गिरफत । २ निबन्धन, गांठ । वौणादिके निम्न वर्षसे अधिक भोगपर भी खामोका खत्व नहीं छूटता। भागमें तन्नो बांधनेका स्थान उपनाह कहलाता हैं। नारदके मतसे-“असखयातमविज्ञात समुद्र यन्निधोयते । ३ प्रलेप, लेपन। ४ खेदविशेष, किसी किस्मका सेंक तज्जानीयादुपनिधि निचे पं गणितं विदुः ॥" या भपारा। वचा, किरात, शताशा, देवदारु आदिसे २ वसुदेवके एक पुत्र। इन्होंने भद्राके गभसे जन्म लिये जानेवाले खेदको उपनाह कहते हैं। (वाग्भटटौका) लिया था। (विशुपु० ४।१५।१३।) ५ नेलसन्धिरोग, बिलनी, आंखको गांठका आजार। | उपनिपात (स • पु०) उप-नि-पत-घञ्। १ समी- “शोफयोरुपनाहं कुर्यादामविदग्धयोः" ( मुश्रुत) | पागमन, पासका पाना । “वतताचो पिनिपातको शङः"
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३१५
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