पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३१८ उपनिवेश है। उसमें गोकर्ण नामक महादेवको मूर्ति प्रति-1 ई० पूर्वाब्दमें कियाचाऊ उपसागरके चतुष्पाच- ष्ठित है। विष्णुपुराणमें इसी बीपका नाम सौम्य पर समुद्रयात्री भारतीय आय वणिकाने व्यवसायके लिखा है। इसको वर्तमानमें सुम्बव होपपुञ्ज समझते उपलक्ष्यसे जा आधिपत्य फैलाया था। उक्त उप- हैं। गोकण नामक देवताके नामसे हो मालूम पड़ता, सागरके: उत्तरकूल पर चौमोये वा चोमो नामक पूर्वकाल में वहां भी हिन्दूवोंका गमन रहता स्थानमें उनके वाणिज्य बन्दर और टङ्कशालाको था। इसी होपके बाद वरणीय द्वीप है। विष्णु पुराण में स्थापना रही। उन्होंने हो ६७५ से ६७० ई० इसका नाम वारुण कहा है। पूर्व कालमें यह द्वीप पूर्वाब्द के मध्य ख ख वाणिज्यको सुविधाके लिये चीन अन्नमवाले (पानाम) राजाके अधिकारमें था। देश में सबसे पहले धातुको मुद्रा चलायी थी। ५८० से उस समय अन्नमको अङ्गदीप कहते थे। पुराणमें ५५० ई. पूर्वान्दको विभिन्न प्रदेशके चीना राजगण अङ्गदोपका विवरण मिलता है- और उक्त बणिक सम्प्रदायने मिलकर एक मुद्रासङ्घ "अङ्गदीप निवोध व नाना जनपदाकुलम् । बनाया । उनको चलायो एक पृष्ठपर चीन और नानास्त्रे च्छगणाकीर्ण तद्दीप बहुविस्तरम् ॥ अपर पृष्ठपर भारतीय बणिकगणके चिन्हाङ्क युक्त हेमद्रुमसुसम्पर्ण नानारत्नाकर' हि तत् । बहुसंख्यक मुद्रा आविष्कृत हुई है। चौना और नदौशैलवनैचिव सन्निभं लवणाम्भसा ॥” (ब्रह्माण्डपु० ५३ अ०). भारतीय लिपियुक्त मुद्रा देखनेसे सन्देह नहीं रहा, इसका कितना ही प्रमाण मिला, कि परकालको कि, उसी सुदूर अतीत काल में भारतीय वणिक गणने उस हीपमें हिन्दुवोंने उपनिवेश स्थापित किया था। । चीनके भीतर-बाहर नाना स्थानों में उपनिवेश स्थापन यहांके प्राचीन राजा दक्षिणांशको चम्पा कहते । किये थे। चीनावोंपर भारतीय लोगोंका यथेष्ट थे। इस समय भी इस स्थानमें शिव, पार्वती, हरिहर | प्रभाव फैल गया। नहीं तो, चीनवासी सहज ही प्रभृति देवदेवीको मूर्ति पूजी जाती है। यहां अनेक | भारतीय बणिक्मुद्राका अनुकरण कैसे करने लगते ? अनुशासन और शिलालेख मिले हैं। उनके पाठसे | चौनके पुरावृत्तसे हम फिर समझ सकते, कि ४७२ ई. समझ सके, किसी समय उस स्थानपर अनेक | पूर्वाब्दमें उक्त भारतीय उपनिवेश चीनपतिके अधि- हिन्दू राजाओंने राजत्व और अपने-अपने नामके कारमुक्त होते भी परवर्ती बहुकाल पर्यन्त उपनिवेशी अनुसार 'जयहरिलिङ्गेश्वर', 'श्रीजयहरिवमलिङ्गेश्वर', हिन्दू बणिक् चीनपतिके बाणिज्यशुल्क देनेको सुविधाके "श्रीदन्द्रवर्मशिवलिङ्ग श्वर प्रभृति शिवलिङ्ग स्थापन लिये कितने ही अणवपोत और नौसेना सौंप उनका किये । यहां जो समस्त शिलालेख मिले, वे | साहाय्य करते थे। रणपोतमें हिन्द बणिक सिपाही अधिकांश संस्कृत और चम (चम्या) भाषामें लिखे हो चीनके उपकूलमें चौनपतिके पक्षसे बाणिज्यादिका हैं। उनमें जो संस्थत भाषामें लिखे, वही अति तत्वावधान करते थे। उन्होंके हाथमें चीनका वाणिज्य प्राचीन हैं। (Journal Asiatique, Paris, 1882, 83-84)| संन्यस्त था। यहांतक कि ई० पूर्व २य शताब्दीके सुतरां यह समझ पड़ा, कि रामचन्द्र के तिरो-| पहले तक चीन-साम्राज्यके प्रायः सकल बन्दरों में 'वान बाद भारत महासागरीय होपपुत्र में आर्य | उनका स्थान रहा। हस्यू और काटोगरा बन्दरसे जातिका उपनिवेश लगा था। वे भेषज, मयर और प्रबालादि बहुविध पण्य द्रव्य चौनके पुरातत्त्वको आलोचनासे निकला कि, मंगाते थे। इसी समय उन्होंने चीन उपकूलके हाइ- ई. के पहले ८मसे १म शताब्दी पर्यन्त भारतीय | नान होपमें सिंहलकी तरह मुताके सङ्गहका उपाय आर्य वणिक गणने चौन देशके बहुतसे · स्थानों में | ढंढा। ई० पूर्व २य शताब्दोमें भरब समुद्रसे उनका प्रभाव फैला दिया था। उनका उपनिवेश भी बहुत- | एक प्रतिद्वन्दी दल पहुंचने पर क्रमसे उसकी और से स्थानों में प्रतिष्ठित रहा। यहां तक, कि९८० चौना बणिकगणको प्रतियोगितासे भारतीयोंका प्रभाव