३५८ उपासना फल, अथवाद और उपपत्ति-छह प्रकारके लिहारा। "प्रकरणप्रतिपाद्यस्य तव तव प्रश' सनमर्थवादः । यथा तवे व उततमा- देशमप्राचे येन श्रुतं श्रुतं भवतामतं मतमधिज्ञातं विज्ञातं इत्यहितीयवस्तु समस्त दान्तका तात्पर्य ब्रह्ममें अवधारण करना प्रशसनम् ।।” श्रवण कहलाता है। अर्थ वाद-प्रकरणप्रतिपाद्य वस्तु को स्थान-स्थानपर "तत्व प्रकरणप्रतिपाद्यस्वार्थस्य तदादान्त योरुपादान' उपक्रमोप- होनेवाली प्रशंसा अर्थवाद कहलाती है। जैसे उसी संहारी। यथा छान्दोग्यषष्ठप्रपाठक प्रतिपाद्यादितीयवस्तुनः एकमेवाधि- प्रपाठकमें "उततमादेशमाने' अर्थात् 'तुमने वही पूछा तौयमित्यादी ऐतदात्ममिद' सर्व मित्यन्ते च प्रतिपादनम्।' जिसके श्रुत होनेरे कुछ अशुत नहीं रहता' उपनाम धीर उपस'हार-पिस प्रकरण में जो विषय प्रति- इत्यादि और "अविज्ञात' विज्ञातम्” अर्थात् 'जिसके पादन कारले, उस प्रकरण के बाद और अन्त में उसी जाननेसे अज्ञात वस्तु भी विज्ञात हो जाता हैं' शेष विषयके कीर्तनको यथाक्रम उपसंहार करते हैं। जैसे सन्दर्भ द्वारा प्रतिपाद्य परब्रह्म को प्रशसा का गयो है। छान्दोग्य उपनिबटुके षष्ठ प्रपाठशमें प्रथमत: “एकमेवा ___ "प्रकरणप्रतिपाद्यार्थ सावने तब तब यमाणा युक्तिरूपपत्तिः । द्वितीयं ब्रह्म” और पश्चात् “ऐतदात्मामिदं सर्वे” कहा यथा तवैद यथा मौम्यतेन सपिण्डेन सर्व समयं विज्ञात स्थात् वाचारम्भणं है। अर्थात् आदिमें ब्रह्मको एक एवं अहितीय और विकारनामधे यः मृत्तिकै तीवसतामित्यादावदितीयवस्तु सारने विकारस्थ अन्त में विश्वको ब्रह्मात्मक बता उपक्रसके साथ उप वाचारम्भणमावत्वं युक्ति: यते।" संहार लगाया है। ____ उपपत्ति-प्रकरण प्रतिपाद्य अर्थको सम्भवता ठह- "प्रकरणप्रतिपाद्यस्य वस्तुनः तन्मध्ये पौगःपुन्धन प्रतिपादनं अभ्यासः । रानेके लिये जो यति दी जाती है, वही उपत्ति है। यथा तब वाहितीयवस्तुनी मध्ये 'तत्त्वमसि' इति नवक्तत्व: प्रतिपादनम् ।” । जैसे उसी प्रपाठकमें "यथा सौम्यकेन" अर्थात् 'एक अभ्यास-प्रकरणके मध्य प्रतिपाद्य वस्तुका पुनः | मृत्पिण्डसे' इत्यादि और “मृत्तिकै त्ये वसताम्" पुन: कीर्तन अभ्यास है। यथा उक्त प्रपाठकमें 'तत्त्व अर्थात् 'मृण्मय पानादि भी समझ पड़ते हैं। विकार मसि' अर्थात् 'वह परमात्मा तम्ही हो' नौ बार प्रति- और नाम केवल वाक्य मात्र है। मृत्तिका ही यथार्थ यादित है। है' शेष सन्दर्भ द्वारा अद्वितीय वस्तुके प्रतिपादनमें "प्रकरणप्रतिपाद्यस्य वस्तुनः तत्त्वोपनिषद' पुरुष' पृच्छामीत्यादिना | विकार अर्थात् जड़ जगत्को वाक्यमानत्वरूप युक्ति उपनिषन्मात्रवेद्यत्वप्रतिपाद न त मानान्तराविषयीकरणम्।" प्रदर्शित है। अपूर्व ता-प्रकरण-प्रतिपाद्य वस्तुके मानान्तरका “मननन्तु शु तस्याहितीयवस्तुनो वेदान्तार्थानुगणयुक्तिभिरनवरतमनु- अविषयीकरण अपूर्वता कहलाता है। जैसे उक्त प्रपा- चिन्तनम्।" ठकमें । अर्थात् 'उसी उप ___ मनन-वेदान्तको अविरोधिनी युक्तिसे श्रुत अवि- निषटुके प्रतिपाद्य पुरुषका विषय पूछताई' कहकर तीय परब्रह्म वस्तुको निरन्तर चिन्ताका नाम मनन है। प्रकरण-प्रतिपाद्य परब्रह्मको वेदान्तरिक्त प्रमाण हारा | "विजातीयदेहादिप्रत्ययविरहिताहितीयवस्तुसजातीयप्रवाहो निदिध्यासनम् ।” असम्प्राप्ति दिखाना हो अपूर्वता है। __ निदिध्यासन-जड़ पदार्थ के विरोधी ज्ञानको छोड़ “फलन्तु प्रकरणप्रतिपाद्यात्मज्ञानस्य तब तब यूयमाणं प्रयोजनम् । अदितीय ब्रह्मवस्तुका जो अविरोध विज्ञान बहता है, यथा तवे व पाचार्यावान् पुरुषो वेद तस्य तावदेव चिरं यावद विनोचे अथ उसीको शास्त्रमें निदिध्यासन कहा है। बस-श्रवण, सम्पत्स्ये तत्प्राप्तिप्रयोजन श्रू यते।” मनन और निदिध्यासनको उपासनासे योगसिद्धि होने- . फल-प्रकरण-प्रतिपाद्य अनुष्ठानके फलको श्रुति पर परम पदार्थ परब्रह्म मिल सकता है। अथवा श्रूयमाण प्रयोजनका नाम फल है। जैसे योगसे उक्त श्रवण, मनन और निदिध्यासन सिद्ध उसी प्रपाठकमें “आचार्यवान् पुरुषः' अर्थात् 'पुरुष होता है। जीवात्मा और परमात्माके संयोगको योग प्राचार्यवान् है' इत्यादि सन्दर्भ द्वारा परब्रह्ममें ज्ञाना- कहते हैं। योगके पाठ अङ्ग हैं। अब अष्टाङ्ग योग नुष्ठानको ब्रह्मप्राप्ति-रूप फलश्रुति सुनायी है। और उसका विशेष विवरण बतलाते हैं। ... .
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३५९
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