पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३६०

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उपासना-उपासनार्थ , "ज्ञानं योगात्मकं विद्धि योगञ्चाटाइस्युतम् ।। । शोचनीय विषय पुनः पुनः पड़ते भी चित्तमें जो संयोगी योग इत्य को जीवात्मपरमात्मनोः ॥” (योगियाज्ञवल्का) स्थिरता रहती, उसे विहन्मण्डलो कृति कहती है। ज्ञान योगात्मक है अर्थात् योग ही ज्ञान बनता मिताहार-मुनियोंको आठ, अरण्यवासियोंको है। और परमात्माके साथ जीवात्माका संयोग योग सोलह एहस्थोंको बत्तीस और ब्रह्मचारियों को मनमाने कहलाता है। योगके आठ अंग है। ग्रास ग्रहण करनेका विधान है। इसी विहित ग्रासके "वलश्च नियनचे व प्रासनञ्च तथैव च । .भोजनको मिताहार कहते हैं। प्राणायानन्तया गर्षि प्रत्याहार धारण ____ शोच-शौच दो प्रकारका होता है-वाद्य और ध्यान समाधिरतानि योगाङ्गानि वरानने " आभ्यन्तर। मृत्तिका तथा जलादि द्वारा गात्रादिके हे वरानने गागि। बम, नियम, आसन, प्राणा- शौचको वाद्य शौच और धर्मानुशीलन एवं अध्यात्म- याम, प्रत्याहार, दमा, ध्यान और समाधि आठ विटा द्वारा सजापानको विद्या द्वारा मन:--शौचको पाभ्यन्तर शौच योगके अङ्ग होते हैं। शहते हैं। सकल अष्टाङ्ग के प्रकारका भेद यह है- नियम-तपस्या, सन्तोष, आस्तिक्य, दान, ईश्वर- “यनश्च नियमश्चैव दरवा मप्रकीर्तितः । पूजा, सिद्धान्तश्श्रवण, लज्जा, मति, जय और व्रत दश पासनान्युत्तमान्यष्टौ अयं तेष त्तमोत्तमम् ॥ प्रकारका नियम होता है। प्राणायामस्त्रिधा प्रोक्त: प्रत्याहारश्च पञ्चधा। ____ आसन-स्वस्तिक, गोमुख, पद्म, वीर, सिंह, भद्र, धारया' पञ्चधा प्रोक्ता ध्यान' घोढा प्रकीर्तितम् ॥ युक्त, मटर प्रभृति कई आसन कहे हैं। आसनसे बवन्त षत्तमाः प्रोक्ता समाधे स्व करूपता। देह और मनका स्थैर्य सम्पादित होता है। बहुधा केचिदिच्छन्ति विस्तरेण पृथक् शृणु ॥" प्राणायाम-प्राण और वायुके संयोगका नाम प्राणा- यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( अचौर्य), ब्रह्मचर्य, याम है। प्राणायामके समय रेचक, पूरक और कुम्भक 'दया, आर्जव (सारत्य), क्षमा, धृति, परिमिताहार तीन प्रक्रियां करना पड़ती हैं। प्राणायामके हारा . और शौच इन दश प्रकारका यम होता है। इसमें भी प्राणवायुको जीत सकते हैं। _ "सत्य भूतहितं प्रोक्त न यथार्थाभिभाषणम् ।” प्रत्याहार-सकल इन्द्रिय स्वभावसे ही विषय-सम्भो- सत्य-प्राणियोंका हितकर वाक्य ही सत्य है। गके लिये धावमान हैं। उन्हें बलपूर्वक अपने-अपने "केवलमात्र यथार्थे भाषणको सत्य नहीं कहते। विषयंसे हटाकर रखना प्रत्याहार कहलाता है। -काया, मन और वाक्यसे परद्रव्यके प्रति धारणा-यम-नियमादि गुणयुक्त हो मनका जो निस्प हा रहती है, उसोको विहन्मण्डलीने अस्ते य | पात्मामें अवस्थान धारणा है। कहा है। ध्वान-मनोमध्य परमात्माके स्वरूप चिन्तनको ब्रह्मचर्य---सर्वत्र, सर्वथा तथा सर्वावस्थामें काया, मन ध्यान कहते हैं। और वाक्यसे मैथुन छोड़नेका नाम ब्रह्मचर्य है। समाधि-जीवात्मा और परमात्माको समतावस्थाका


काया, मन और वाक्यसे समस्त प्राणियों पर

नाम समाधि है। कोई कोई कहते हैं, कि समाधिमें 'अनुग्रह रखनेको इच्छाका नाम दया है। सविकल्पक और निर्विकल्पक दो भेद रहते हैं। भाव-प्रवृत्ति और निवृत्तिमें जो समभाव रहता ऐसे समस्त उपायों द्वारा परमात्मा परमेश्वरको है, उसीको.योगी आजैव कहते हैं। उपासना करनेसे अवश्य मोक्ष मिल सकता है। क्षमा-प्राणियोंके प्रिय और अप्रिय सकल विषयों में अन्यान्य उपासनावोंका विषय पूजा शब्दमें देखो। रहनेवाले समभावको क्षमा कहते हैं। उपासनार्थ (स. त्रि.) उपस्थितिके योग्य, जो धृति अर्थकी हानि, बन्धका वियोग प्रभृति सकल ' हाज़िरोके काबिल हो।