पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उल्काग्नि-उल्ख्य वराहमिहिरके मतानुसार-खर्गसे शुभफल भोग । उल्काधारी (स.वि.) मशालची, फलोतेवाला। जो गिर पड़ते, उन्हीं के रूपका नाम उल्का रखते हैं। उल्कापात (स'. पु०) उल्कानां पातः। १ तामस धिष्णा, उल्का, अशनि, विद्युत् और तारा पांच उत्पात विशेष, आसमान्से तारोंका टूटना। २ विघ्न, भेद हैं। उल्का तथा विष्णाका पन्द्रह, अशनिका बुराई । तान्तीस और विद्युत् एवं ताराका फल छह दिनमें उल्कामत्स्य (सं० पु.) मत्स्यविशेष, सूस । मिलता है। ताराका चतुर्थाश, विष्णाका अर्धाश उल्कामाली (सं० पु०) शिवके एक भृत्य । और विद्युत्, उल्का एवं अशनिका सम्पूर्ण फल उल्कामुख (सं० पु.) उल्केव मुखं यस्य । १ प्रेतविशेष। है। शनिको पाक्कति चक्राकार है। वह गभौर शब्दके “वान्तावाल्कामुखः प्रेती विप्रो धर्मात् खकाच्य तः ।" (मनु १२००१) साथ मनुष्य, हस्ती, अश्व, एह, वृक्ष और जन्तु प्रभृति २ इक्ष्वाकुके एक वशज। पर गिरती है। विद्यत कुटिलाकार एव' विस्तृत उल्कामुखौ (सं० स्त्री०) शृगाली विशेष, लोमड़ी। रहती और सहसा कड़कड़ाहटके साथ गिर जीवोंका इसका पर्याय शृगालिका, लोमालिका, दीप्तजिह्वा और विनाश करती है। धिष्णा कृश, अल्पपुच्छविशिष्ट, किखि है। . . प्रज्ज्वलित अङ्गार-तुल्य और हस्तहय परिमित है। उल्कुषी (सं० स्त्री०) उला दाहेन कुशति, कुष-क- तारा एक हस्त प्रमाण, दीर्घावति, एवं शुक्ल अथवा डोष । १ उल्का, तारे का टूटना। "अशनिरीव प्रथमोऽनुयाजः ताम्रवर्ण लगती और आकाशमें ऊर्ध्व-अधः वा वक्र- जादुनिहितीय उल्कुषौ ढतीयः।" (शतपथब्रा० ११।२।७.२१ ) 'उल्कुषी भावसे चलती है। उलकाका शिरोभाग अधिक उल्का।' ( सायख) २ मशाल, फलौता । विस्त रहता और गिरनेसे बढ़ चलता है। पुच्छ उल्कुषीमान् (दै० पु०) उल्काविशिष्ट, तारेके टटनेसे वश एवं आकार दीर्घ है। यह उल्का नानाप्रकारको सरोकार रखनेवाला। “यव प्रापादि शश उल्कुषोमान्।" होती है। (वृहत्संहिता ३३ अ०) (अथर्ववेद ५।१७।४) कलकत्तेके अजायब घर (Museum)-में अनेक उल्टा, उलटा देखो। 'उल्काप्रस्तर रखे हैं। उनके मध्य एक १८६१ ई०को उल्था, उलथा देखो। १२ वौं मईको गोरखपुर में मिला था। उसका वज़न उल्ब (स' लो०) उत् लोङ् श्लेषण इति साधुः । दो मनसे अधिक है। सिवा इसके यशोहर, बांकुड़ा, उल्वादयश्च । उण ४।६५ । १ जरायु । २ गर्भवेष्टनचम । ३गर्भ, प्रभृति ज़िलोंसे भी वृहत् वृहत् उल्काके प्रस्तर संग्रह हमल। . किये गये हैं। "जातमाब विशोध्योल्बाहान' सैन्धवसर्पिषा।" (वाग्भट, उत्तरस्थान १५०) उल्काके लौहमें अपर धातु मिलानेसे नानाप्रकारके "गर्भो जरायुग्णाहत: उल्व जहाति जन्मनः।" (ग्रलयजुः १९४३६) यन्त्रादि बन सकते हैं। सुनते-ईरान के बादशाह | उल्बण (स.त्रि०) उत्-बण-अच् पृषोदरादित्वात् और तिब्बतके लामा उल्काके लोहेसे बनौ तलवार साधुः। .१ प्रबल, जारावर। २ उद्भट, अक्खड़। रखते हैं। ३ व्याप्त, भरा हुआ। ४ स्फुट, खिला हुआ। उल्काग्नि (सं० पु०) उल्कैवाग्निः । उल्का, आसमान्से “हेतुर्लक्षणसंसर्गाविद्याइन्होल्यमानि च।” (माधवनिदान) ५ तीक्ष्ण, टूटनेवाला तारा। तेज़। । प्रकाशित, जाहिर। ७ निर्बाध, बेखटका । उल्काचक (सं० लो०) १"ह्यमन्त्रका शुभाशुभज्ञापक “तस्थासौदुल्वणो मार्गः पादपैरिव दन्तिनः । (रतु ॥३३) (क्लो०)८ चक्रविशेष । “उल्काचक्र सर्वसारं मन्त्रदोषादिनिर्णयम्।" (रुद्रयामल), शरीरस्थित वात प्रथवा पित्तके प्रकोपका रोग। २ विघ्न, मड़बड़। ३ उपद्रव, इलचल। (पु०) वशिष्ठके एक पुत्र। सलाजित (सं० पु०) उस्केव जिह्वा यस्य । रामायणोक्त उल्व्य (स.की.)शरीरस्थित वातपित्त वा कपाका प्रसिह राचसविशेष। । प्राधिक्य । .२ विपद, परफल। . ..