उल्का ३६३ उल्काका प्रस्तर कभी क्षुद्राकार कभी वृहदाकार जब घटनाके क्रमसे भूमण्डल उक्त पदार्थ-राशिर्व होता है। मङ्गोलीयोंके विश्वासानुसार चीन देशके पास पहुंचता, तब वह पृथिवौके चारो ओर घणन पश्चिमांशमें पीत नदी किनारे जो ४० फोट उच्च पर्वत । शोल चन्द्रवत् (Sattelite) समझ पड़ता और खड़ा, वह आकाशसे ही टूटकर पड़ा है। पृथिवौके साथ चन्द्रवत् सूर्यके चारो ओर घूम सकत ___ उक्त नाना आकारों में गिरनेसे युरोपीयोंने प्रथम है। वह सुवृहत् होते भी चन्द्रवत् सूर्यको पालोकसे उल्का सम्बन्धपर चार प्रकारका अनुमान बांधा था। झलक देखने में आ जाता है। अनेक उल्का अतिशय १म-तरल पदार्थसे जैसे धम उठता, वैसे ही क्षुद्र, कतिपय वृहदाकार हैं। पृथिवी ऐसे अनेक उल्का-सम्बन्धीय द्रव्य भी अतिशय सूक्ष्म आकारमें सहचरों या चन्द्रोंसे घिरी है। इनमें एक एक इतना पृथिवीसे वायुमण्डलके उच्चस्थ मेघपर जा जुटता और वृहत् और कठिन रहता, कि सुस्पष्ट सूर्यका पालोक रासायनिक क्रियासे मिलकर अपने गुरुत्वके अनुसार झलकता है। यह जब पृथिवीके अतिनिकट आता, नीचे गिरता है। तब अल्प समय के लिये चर्मचक्षुसे देखा जातां, फिर ___२य-उल्काके सकल प्रस्तर पहले आग्नेय गिरिसे पृथिवीको छाया पड़नेसे सम्पूर्ण ग्रहण हो अपना निकल अपनी गतिके अनुसार आकाशमण्डल पर बह मुह छिपाता है। दर पर्यन्त चढ़ते और अवशेषमें फिर प्रबल वेगसे , उसक उसके बाद पेटिट साहबने गणनासे ठहराया- पृथिवीपर गिर पड़ते हैं। उल्कावों में एक वृहदाकार प्रस्तर है। वह द्वितीय ३य-किसी किसी समय पर चन्द्रमण्डलके चन्द्रवत् पृथिवौके साथ घूमता है। उसका कक्ष आग्नेय गिरिले इतने वेगमें धातु निकलता, कि भूमध्यसे ५००० मौल और भूके मध्यभागसे ८००० पृथिवीके निकट पा लगता और पृथिवीको शक्तिसे मोल दूर अथवा चन्द्रसे २४ मोल समीप है। वह पृथिवीको चारो ओर ३० घण्ट २० मिनट में एकवार खिंचकर नीचे गिर पड़ता है। ४र्थ-सकल उल्का उपग्रह हैं। यह सूर्य के चारो घूमता, अत: प्रतिदिन सात वार पृथिवीको परि• ओर अपने अपने कक्षमें घमती हैं। सकल कक्ष क्रमा देता है। पृथिवीके वार्षिक गतिके पथमें वक्र भावसे उत्तीर्ण अपने देश के प्राचीन ज्योतिविद श्रीपतिने कहा है। होते हैं। कभी पृथिवी इन कक्षोंके समान पड़ जाती "यासां गतिर्दिवि भवेद गणितेन गम्या तास्तार काः सकलखेचरतोऽति दूरे । तिष्ठन्ति या अनियतीदगतयश्च ताराचन्द्रादधो हि निवसन्ति तदन्वितास्ताः ॥ है। उस समय कक्षके उस्का नामक उपग्रह पृथिवी शीतांग्रवचलमयास्तपनात् स्फ रन्ति ताशावहप्रवहमारुतसन्धिसंस्थाः । पर गिरते अथवा पृथिवीके वायुमण्डल में घुस आक पूर्वानिलः स्तिमितभावमुपागतोऽमितारा: पतन्ति कुहचिट्ट गुरुतावशे न ॥" षंगको शक्ति के प्रभावसे अवशेषमें भूमिपर आ जिनकी आकाशगति गणितशास्त्रसे समझ पड़ती पहुंचते हैं। और जिनको अवस्थिति समस्त गगनचारी ज्योतिष्कोंसे उक्त चारो मतोंपर बहुत दिन तक बादविवाद अति दूर लगती, उन्हें विदन्मण्डली तारका कहती चला था! अन्तको प्रसिद्ध युरोपीय ज्योतिर्विद हरशेन्द्र है। फिर जिनकी गतिका नियम नहीं रहता, उन्हें साहबने स्थिर किया-सकल तारकावोंके चारो ओर : ज्योतिविद तारा कहता है। वह पीछे पीछे चल दृष्टिविहित अति क्षुद्र क्षुद्र नौहारिका तारा चन्टके अधोभागमें बातो. चन्द्र के अधोभागमें ठहरती हैं। उनमें चन्द्र की तरह (Kebule)को तरह सूर्य के इधर-उधर भी नीहारिका जल भरा है। वह सुर्य के किरणसे चमक स्फ रित वत् पदार्थ (Nebulous matter) की राशि घिरी होती हैं। उनका संस्थान प्रावह और प्रवह दो मार- है। सल्काप्रस्तर (Nebuloric stone) और तारापात तोंके सन्धिस्थलमें है। फिर स्तिमित भाव प्राप्त होते ही (Shooting stars) नामसे होनेवाला नैसर्गिक काण्ड वह गुरुत्वके कारण पूर्व पवनसे मूमिके किसी स्थलपर नीहारिकावत पदार्थका विकाश मात्र है। गिर पड़ती हैं। Vol III. 99
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३९४
दिखावट