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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४०२

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उषापति-उष्ट्र उखापति (स.पु०) उषायाः पतिः स्वामी, ई-तत। तक भार ढोता है। बेकेतो हिगुइनसे छोटा पड़ता अनिरुद्ध। यह कृष्णके पौत्र और प्रद्य के पुत्र थे। है। पृष्ठमें ककुदाकृति दो कुब रहते हैं। उनके उषा और अनिरुद्ध शब्द देखो बीच दृयादि रखने से किसी दिक गिर नहीं सकते। उषासानता (सं० स्त्री० ) प्रत्य ष एवं रात्रि, सवेरा और 2 मन भार लादता है। अंधेरा। इल हैरी अपर जातीय उष्ट्रसे खर्व पड़ते भी भारके उषित (सं० त्रि. ) वम वा उष-त । १ पर्युषित, रात वडनमें सबको अपेक्षा पटु है। ऐसा बहुकालव्यापो बिताये हुआ। २ दग्ध. जला हुआ । ३ निविष्ट, पहुंचा द्रुतगामी पशु कहीं नहों। हम जिस परदार घोड़े का हुआ। ४ त्वरित, जल्द । गल्प सुनते, उसे द्रुतगति अनुध्यान करनमे इल हैरी उषितङ्गवीन (संत्रि.) उषिता अवस्थिता गावो, ही समझते हैं। अरबी कवियोंने इसकी जीभर प्रशंसा यत्र। गोगासे खाया इमा, जहां गावोंने खाया हो। को है। इल हैरौ आठ दिन प्रायः ४५० कोस उपौर (संपु० लो०) उष-कीरच। उशीर देखो: अफरीकाका दुर्गम मरुपथ तय करता है। उषेश (स० पु.) उषाया ईशः पतिः, ६-तत्। उष्ट्र-रोमन्थक कहलाता अर्थात् भुक्त वस्तु उद- उषाके ईश अनिरुद्ध। गौरणपूर्वक फिर चबाता है। किन्तु दन्त की संख्याक उषोदेवत्य ( स० त्रि०) प्रत्यषकालको देवता अनुसार अपर रोमन्यक पशुओंने इसका लक्षण भिन्न है। मानने वाला। अपर रोमन्थक पशुके के क्ल नौचेको दंष्ट्रमें छेदन-दन्त उष्ट्र (सं. पु०) उष-ष्ट्रन्-कित् । उषिजनिभ्यां कित्।। जमते, उसके जबरी अग्रभागने नौं निकलते। परन्तु उण् ४।१६॥ पशुविशेष. जंट। संस्कृत पर्याय-क्रमेन्ल, उष्ट्र के नौचे ऊपर दोनों दंष्ट्र वह रहा करते हैं। सोलह क्रमेलक, सय,महाङ्ग, दोषंगति, वली, करम, दासरक, अपर और अट्ठारह नीचे कुल ३३ दांत होते हैं। धसर, लम्बोष्ठ, वरण, महाज, जवी, जाडिक, दोघ, ऊपरी दंष्ट्राने २ मुक्क, २ तौक्षण एवं १२ पेषण-दन्त और शृङ्खलक, महान, महाग्रीव. महानाद, सहाध्वग, नांचे ६ सक, ८ लौक्षण तथा १० पेषण दन्त होते हैं। महापृष्ठ, वलिछ, दौछ जङ्घ, ग्रोवी, धनक, शरभ. ऊपर के सृक्क अधिशांश तौक्षण दन्त-जैसा रहते हैं। कण्टकाशन,भोलि, बहुकर, अध्वग, महाय, वक्रग्रीव, अपर रोमन्यक पशुवात उष्ट्रका दूसरा लक्षण भी वासन्त, कुलनाश, कुशनामा, मरुप्रिय, हिककुत. दो भिन्न है। घन और नौकाकार गुल्फके अस्थि (Tarsus) लवन, भूतघ्न, दासेर, दोघ ग्रोव और कैलिकीण है।। अलग अलग रहते हैं। फिर अपर रोमन्थकोंको संस्कृत क्रमेल भिन्न भिन्न भाषावोंके शब्दोंसे मिलता है- तरह खुर वितण्डित नहीं जुड़े होते हैं। श्री जैसे संस्क त 'क्रमेल', हिब्र 'गमेन,' ग्रोक कामिलस', शशकवी तरह छिदे होते हैं। चक्षुके गोलक अति रोमक ‘कमेलस, इटलीय कम्मे लो, स्पेनीय कमेलो,' वृहत् पड़ते और कोटकै उपयुक्त नहीं अंचते। नासि- जमैन 'कमौलु,' फ्रान्सीसी 'कमु,' (Chameau) अंग का वक्र और सोचनके योग्य लगती है। मस्तक रेजी 'कैमेल (Camel) अरबी 'जमेल'। इसके सिवा बृहत् होता है। ग्रीवा क्षीण और दीर्घ रहती है। फारसोका शुतर शब्द धूसर जैसा मालूम पड़ता है। पृष्ठ देश कुन्ज होता है। जरु तथा जङ्गाका दैय ___ यह अरज, ईरान्, दक्षिण तुर्कस्थान, उत्तर-पश्चिम अपरिमित रहता है। पद स्थल और दो मात्र नख- भारत, इजिप्तमे मरितानियातक अफरीका, भूमध्य विशिष्ट होते हैं। पदका तल प्रशस्त रहनेसे ममके सागर तथा सिनिगल नदी तोरके मध्यवर्ती प्रदेश और मध्य चलते समय बालुकामें नहीं धसता। ऊपरका कनारी दीपमें वास करता है। होठ शशककी तरह होनेसे उष्ट्र वालुकायुक्त अरण्यस्थित . उष्ट्र तीन जातिके होते हैं-हिगुइन, बैकेती और कण्टकमय गुल्मादि खा सकता है। नासिका वक्र इल हैरी। हिगुड्न सबसे बड़ा होता और १५ मन और सङ्कोचन योग्य रहनेसे यह मरुभूमिमें 'सिसुम Vol III. 101