पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४०३

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नामक साक्षात् कालान्तक वालुकाका प्रवाह बचा : आर्य ऊंटपर चढ़ते थे। (ऋक् ८४६२८-३१) वह अखको जाता है। यात्रा कालपर जब 'सिमुम' नामक वायु तरह युद्ध में भी इसका व्यवहार करते थे- चलने लगता, तब उष्ट्रसे नीचे उतर मट्टोमें मुंह "यथा मृध उष्ट्रो न पीपरोन्धः।" (ऋक् ११३८(२) घुसेड़ रखने पर अति कष्टले आरोड़ियों का प्राण वचता वैदिक ममयसे ही ( ८५०३७, ८४६।३१) राजा अश्व है किन्तु इसका काम सामान्य नासिका सिकोड़नसे, गो एवं धनादिकी तरह उष्ट्रदान (भारत, सभा) करते ही बन जाता है। आये हैं। अश्वयान और गोयानको तरह पूर्वकालमें उष्ट्र- यानका भी व्यवहार रहा (मनु २।२०४ )। उस समय ब्राह्मण उष्ट्रयानपर चढ़ न सकते थे। कारण-उष्ट्र- यानपर चढ़नेसे ब्राह्मणको पाप लगता है- “उष्ट्रयान समारुह्य खरयानन्तु कामतः । नात्वा तु विप्रो दिग्वासा: प्राणायामेन शुद्धयति ॥" ( मनु ११।२०२) ब्राह्मण यदि अपनी इच्छासे उष्ट्रयान अथवा गर्दभ उष्ट । यानपर चढ़ता, तो विवस्त्र नहा प्राणायाम करनेसे उष्टकी पाकस्थलोमें बड़ा चमत्कार है। वह शुद्ध होता है। अपर सकल जन्तुको पाकस्थली से भिन्न होती है। शास्त्र में उष्ट्र के मांसका भक्षण निषिद्ध है- पहले वह एक अोखली जैसी समझ पड़ती है। पश्चात “गौधे यकुञ्जरोष्ट्रञ्च सबै पञ्चनखं तथा । दिक दो घर रहते हैं। वह मध्यमें एक कठिन पंक्ति कन्याद' कुछ टं ग्राम्यं कुर्यात् चवत्सरं व्रतम् ॥” (श-संहिता १७.२१) हारा विभक्त हैं। यह अंश अन्ननालीवाले छिट्रपथके गोह, हाथी, ऊंट, पांचनख का पशु और मांसाशी दक्षिण पाच से ढलते गया है। इस प्रोखलीमें जलका गांवका मुर्गा खानेसे संवत्सर व्रत करना चाहिये। पोसरा रहता और आवश्यकता पड़नेसे उष्ट्र फिर जल बाइबिल में भी उष्ट्रका मांस अभक्ष्य-जेसा निदिष्ट पो सकता है। किसी किसी अरबी ऐतिहासिकने है-"Because he cheweth the cud, but divi- यहांतक कह दिया है कि जब मुहम्मदने टाबक नगर deth not the hoop; he is unclean unto you." को यूनानियोंके विपक्षमें गमन किया, तब सैन्य के (Leviticus, xi. 4.) सामन्तोंने आहार एवं पानीयके अभावसे अत्यन्त ____उष्ट्र तुम्हारे पक्ष में अशुचि है। क्योंकि जुगाली विपदमें पड़ अपने अपने ऊंटको मार पाक- चलते भी इसके खुर फटे नहीं होते। स्थलोका जल पिया था। (Salis Koran, p. 164) अरब देशके कवियोंने इस पशुको 'अरण्यपोत' किन्तु युरोपके वर्तमान प्राणितत्त्वविद उक्त घटना जैसा वर्णन किया है। उष्ट्र उन्हें प्राणसे अधिक प्रिय नहीं मानते। है। वह इसके मांस और दुग्धसे जोधन धारण करते इसे वनका कण्टकण खाना अच्छा लगता है। हैं। लोमसे वस्त्र बनता और शिविर के प्रस्तुतकरणका पक्षाधिक आहार न मिलते भी उष्ट्र कातर अथवा भार उपादान मिलता है। यह वस्त्र उत्तरपश्चिम अञ्चलमें वहनमें अक्षम नहीं पड़ता। अधिक दिन उपयुक्त किसी किसौ स्थानपर बिकता है। विलायतमें उष्ट्रके पाहार न मिलने पर पृष्ठस्थित ककुदके रक्त मांससे लोमसे कलम तैयार होता है। उष्ट्रका मल अरब प्रतिपालन कार्य सम्पादित होता है। देशमें जलानेके काम आता और धमसे निशादल अति पूर्वकालसे उष्ट्र मानवके व्यवहार में लगता बन जाता है। है। अनेक प्रमाण मिलते हैं कि वैदिक समयके | वैद्यक मतसे उष्ट्रीका दुग्ध लघु, स्वादु, लवणस्वाद