पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४०४

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उष्ट्रकण्टकभोजनन्याय-उष्ट्रपक्षी रख दीपन होता और कमि, कुष्ठ, पानाह, शोथ : उठती है। फिर प्रतिक्रियासे वह पक जाती है। तथा उदररोगको दूर करता है। (सुश्रुत ) माधवनिदानमें इसका नाम 'उशिरोधर' ___उष्ट्रीका घृत दीपन और वातश्लेष्म नाशक है। यह लिखा है। भगन्दर देखो। पुराना हो जानेसे कट हो जाता है। इसको पीनेसे शोय, उष्ट्रयसरपुच्छिका (सं० स्त्रो०) उष्ट्रस्य धसरः पुच्छ इव विष, कुष्ठ, कृमि, गुल्म और उदररोग नष्ट होता है। पुच्छः मञ्जरो यस्याः। कश्चिकाली, विषुवा। ___ उष्ट्रका मूत्र खास, कास और अर्शोरोगको उष्ट्रपक्षो ( स० पु० ) द्रुतगामो एक भूचर पक्षी, शुतुर- मिटानेवाला है। मुर्ग। (Struthio camelus ) इसको चोंच मंझोली, उष्ट्रकण्टकभोजनन्याय (सं० पु.) उष्ट्रके कण्टक फैली और भीतरको गाल होती है। मत्था छोटा और भोजनका न्याय, ऊटके कांटा खाने की चाल । क्षतसे . गला लम्बा पड़ता है। दोनो पैर अधिक बृहत् और बहु दुःख सहते भी उष्ट्र जैसे सामान्य भोजनको बलिष्ठ रहते हैं। पैर में दो-दो तलवे होते हैं। उनमें प्तिके सुखको शमी कण्टक खा जाता , वैसेही एक भातर और एक बाहर लगता है। भौतरी ज्यादा मनुष्य भी यत्सामान्य मुखके भाशयसे बहुतसा सांसा-! बड़ा और खपड़े जैसा होता है। बाजसे यह उड़ नहीं रिक दुःख उठाता है। क्षणभङ्गर मुख के लिये भावी सकता। किन्तु दोड़ने में बड़ो सुविधा होती है। अनन्त दुःख का ध्यान न रखना उष्ट्रकण्टकभोजनन्याय बाज़ और पूछमें मुलायम पर रहते हैं। कहलाता है। मुर्ग अपर सकल पक्षियों को अपेक्षा बड़ा 'उष्टकम् (सं० पु०) जनपदविशेष। यह सिन्धुनदसे ठहरता है। इसलिये 'पक्षिराज' कह सकते हैं। यह उत्तरस्थित एक म्लेच्छ देश है। यमानी ऐतिहासिकोंने चारसे छह हाथतक अंचा निकलता है। स्त्रीजाति इसे अष्टकरिख (Astaceni ) कहा है ! एककान्त प्रायः १० अण्डे देती है। फिर एक एक उष्ट्रकणि क (सं० पु.) १ दक्षिणदिक स्थ यवन देश! अण्डा मुरगौके २४ अण्डों को बराबर बंठता है। २ उक्त देशके लोग। सहदेवके दिग्विजयवर्णनपर अधेड़ नरका काला और चिकना तथा मादे कहा है- या बच्चे का पालक काला अथच कबरा-बीच- "सन्धांतालवणांचव कलिङ्कानुष्ट्रकर्णिकान् ” (भारत, सभा). बीच सफेद रहता है।' बाज और पूछके बड़े-बड़े उष्ट्रकाण्डी (सं० लो०) उष्ट्र इव काण्डोऽस्य, जातिवात् पर सफेद होते हैं। बीच बीचमें काले धब्बे देख डोष । पुष्पविशेष, ऊंटकटारी। इसका संस्कृत पडते हैं। चक्षु अतिशय तीक्षा और उज्ज्वल रहते पर्याय-रक्तपुष्यो, करमकाण्डिका, रता, लोहितपुष्यो, हैं। इसे अधिक दूरके ट्रव्यादि सहजमें ही देखायी देते और कर्णपुष्यो है। उष्ट्रकाण्डी तिक्तरस, .उष्णवीय, हैं। यह बहुत बलवान् होता है। घटनाक्रमसे पाक- रुचिकारक एवं हृद्रोगनाशक होतो है। वीज मधुर मण पड़नेपर यह पदके आघातसे व्याघ्रादि शत्रवोंको है। शीतल रस उष्ण करनेसे गुणकारी, वीर्यवर्धक इरा सकता है। प्रति घरटे शुतुरमुर्ग २० कोससे और सन्तरण जनक ठहरता है। ( राजनिघण्ट) अधिक जानको शक्ति रखता है। अतिशय झपटनेसे उष्ट्रकोशी (स. त्रि.) उष्ट्रको भांति शब्द निकालने वह सहज ही हाथ नहीं लगता । दक्षिण अफरोकाक वाला, जो ऊँटको तरह बोलता हो। लोग शुतुरमुर्ग का ही चमड़ा पहन शुतुरमुर्ग के आगे उष्ट्रगोयुग ( स लो . ) उष्ट्रहय, अटका जोड़ा। पहुंचते हैं। यह उन्हें भी शुतुरमुर्ग समझ नज़दीक उष्ट्रग्रीव (सं० पु०) भगन्दररोग विशेष। प्रकोपित आनसे नहीं राकता। इसी उपायसे वह निकट जा पित्त हारा वायु अधःप्रेरित होता है। वहां उसके और विषाक्त तीर चला इसे मार डालते हैं। ठहरनेसे रक्तवर्ण, सूक्ष्म, उन्नत उष्ट्रयौवाकार पिड़का। शुतुरमुर्ग अरब और अफरौकाको मरुभूमिमें रहता पड जाती है। उसमें तपकनकी तरह वेदना है। इसे शीघ्र कृष्णा नहीं लगती। दो-चार दिन