पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४३२

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ऋजुनौति-ऋणग्राहो ४३१ ऋजुनौति (स'• स्त्री०) सरल व्यवहार, सीधी चाल। ऋब (सं० पु०) ऋज-रन्। ऋचे न्द्रायवचविप्रे त्यादिना ऋजुमुश्क (व.वि.) सुदृढ़ एवं बलवान, मज़- निपातनात रन् गुणाभावः । उण. ९.२८, १ नायक, रहनुमान् । बूत और ताकृत वर, हट्टाकट्टा। (सायण) (वि.)२ सरलगामो, सीवा चलनेवाला। ३ रक्ताभ. ऋतुरश्मि (स• त्रि०) सरल रज्जुचिह्नयुक्त, जो स्याहोमायल सुख, लालभूरा। रस्सीके सीधे निशान रखता हो। ऋज्वी ( स० स्त्री० ) ऋजु-डोष्। १ सरलतामयो ऋजुरेख (सं० स्त्री० ) ऋजुश्चासौ रेखा चेति। स्त्री, मोधी औरत। २ ग्रहगण को एक गति। सरल रेखा, सीधा कत। ऋञ्जमान (सं० पु.) ऋज असानच्-कित्। ऋनिधि- ऋजुरोहित (सं० लो०) सरल इन्द्रधनु । मन्दिमहिन्यः कित्। उगा रा८७, १ मेव, बादल। (वि.) ऋजुनि (वै० वि०) अनुकूलहस्त, जो अच्छी चीज़ २ धावमान, दौड़ता हुआ। . देता हो। (ऋक् ।४।१५) ऋण (धातु) तना० उभ० सक० सेट। “ऋषटुन गतौ ।" ऋजुशंस (मं० त्रि.) ऋजु यथा तथा शंसति कथ- ( कविकल्पद्रुम ) गमन करना, जाना। यति, ऋज-शंस-पच । सरलभाषी, सीधा बोलनेवाला। ऋण ( स० क्लो. ) ऋ-क्त गणत्वञ्च । ऋणमाधमएँ । पा मा२।६०। ऋजुश्रेणी (स' स्त्री० ) मूर्वा,किसी किस्म का पटसन। १ उधार, कजे, देना। ऋजुस (म० पु०) ऋजुश्चासौ सर्पश्चेति, निपात ____ "जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिक यो यो भवति ब्रह्मचर्यच' ऋषिभ्यो नात् कर्मधा० । १ सर्प विशेष, किसी किस्म का सांप! बड़े न देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः।” (मिताक्षग ) २ दर्वीकर सर्प, बड़े फनका सांप । ब्राह्मण ऋषिऋग, देव ऋ और पिट ऋण ऋजुसूत्र (म. क्लो०) जैन वृत्तिविशेष। यह विविध ऋगा ले कर जन्म लेता है। ब्रह्मचर्य से ऋप्रि- मप्रमाण तथा निर्धारित अर्थको लेता है। भूत एवं ऋगा, यज्ञकर्मसे देवऋण और पुत्रोत्पादनसे पिटऋण भविष्यत इसके भावमें कुछ भी नहीं। ऋजुमूत्र केवल छूटता है। २ दुर्गम भूमि, बोहड़ जमीन । ३ पाप, प्रत्यक्ष विषयपर विश्वास रखता है। इज़ाब। ४ टुर्ग, किला। ५ जल, पानी। ६ क्षय- ऋजुहस्त (सं. त्रि.) विस्तारितपाणि, हाथ राशि, बाको। (पु.) ७ व्यास मुनि। (त्रि.) फैलाये हुआ। ८ अङ्गशास्त्रोक्त संख्याविशिष्ट, जो किसो घटायो यो ऋजक (म० पु०) ऋज-ऋकङ । १ देशविशेष, अदतसे मिला हो। ८ पापो, बुरा काम करनेवाला। एक मुलक। २ पर्वत विशेष, एक पहाड़। इमौ १० गमनकारो, जानेवाला। देश या पर्वतसे विपाशा नदी निकली है। ऋणकर्ता (स.वि.) ऋण लेनेवाला , कज़दार, ऋज करण ( स० क्लो०) अनृजु ऋजु क्रियते, ऋजु- जो उधार लेता हो।, “ऋणकर्ता पिता शव :।" (चाणक्य ) अभूत तद्भावे चि-क-ल्युट, पूर्वदीर्घः । १ सरल बना-ऋणकाति (वै० त्रि०) ऋणवत् फलप्रदा कातिः स्तुतियेस्य, नेका कार्य, सौधा करनेको हालत । २ सुश्रुतोक्त यन्त्र- बहुव्री० । अवश्यफलदायक स्तुतिशाली, जो तारीफको कर्म विशेष। कज की तरह मर कर फायदा बखशता हो। ऋज कृत (सं० त्रि०) सरल किया हुआ, जो सौधा ऋणग्रस्त (स. त्रि०) ऋणेन ग्रस्त:, ३-तत् । बनाया गया हो। बहुऋणयुक्त, कज़ से लदा हुआ। ऋज यत् (सं० वि० ) ऋजु गच्छति, अथवा ऋ ऋणग्रह (सं० पु०) १ ऋण लेने का काम, कर्ज- गच्छति, ऋजु-क्यच, ऋजुय-शल। ऋजुगामी, सीधा दारौ। २ ऋण लेनेवाला, जो कर्ज करता हो।' जानेवाला। ऋणग्राहक (स'• त्रि.) ऋणं ग्रहाति, ऋण-ग्रह- ऋजया, ऋजु रेखा देखो। खुल। अधमर्ण, ऋणकारक, कर्ज लेनेवाला । ऋजयु (स' वि.) १धार्मिक,ईमान्दार । २ सरस,सीधा ।। ऋणग्राही, .ऋणयाइक देखी।