पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४३२ ऋणचित्-ऋणिधनिचक्र ऋणचित् (व.त्रि०) ऋणमिव चिनोति, चि-विप्। ऋणयावन्, ऋणया देखो। तुगागमश्च! १ पापका दण्ड देनेवाला, जो इजाबको ऋणलेख्य (सं० लौ० ) ऋणग्रहणका उपयोगी पत्र.. दबाता हो। २ परिशोधके लिये स्तुतिको ऋणको तमस्सुक। तमस क देखो। तरह ग्रहण करनेवाला, जो अदा करनेके लिये ऋणवत्, ऋणवान् देखो। तारीफको कर्जकी तरह लेता हो। | ऋणवान् ( सं त्रि०) ऋण रखनेवाला, कर्जदार । ऋणच्य त् (सं.वि.) ऋण वा पापसे छुटकारा देने- ऋगाशुद्धि (स. स्त्री०) ऋणशोधन देखो। वाला, जो कर्ज या इजाबको छोड़ाता हो। ऋणशोधन (स क्लो०) ऋण का परिशोध, कर्ज को ऋणञ्चय (स० पु०) १ ऋग्वेदोक्त एक राजा । २ ऋषि चुकती। विशेष। | ऋणादान (सं० लो०) ऋणस्य आदानम्, ६-तत् । ऋणद (सं० त्रि.) ऋण परिशीध करनेवाला, जो १अधमणसे उत्तमर्ण के धनको प्राप्ति, कज़दारसे महा- कज चुकाता हो: जनके रुपयेको चुकतो। २ स्मृतिशास्त्रोक्त अष्टादश ऋणदाता, ऋणद देखो विवादोंके अन्तर्गत एक व्यवहार। व्यवहार देखो। ऋणदान (स. क्लो०) ऋणस्य दानम्, ६-तत् । ऋणान्तक (सं० पु.) ऋणहता मङ्गल ग्रह। ऋणपरिशोध, अदा-कज, उधारको चकती। ऋणापकरण (सं० लो०) ऋणस्य अपकरणं अपनो- ऋणदायक ( स० त्रि.) ऋण ददाति, ऋण-दा-ख ल्हु । दनम्, ६-तत्, अप-क-ल्य ट् । ऋणपरिशोध, ऋणदाता, कज देनेवाला। कर्जको चुकती। ऋणदायो, ऋणद देखो। ऋणापनोदन (स० लो०) ऋणस्य अपनीदनम्, ऋणदास ( स० वि०) दासविशेष, एक नौकर । ऋणके ६-तत्, अप-नुद-लुपट । ऋणशोध, कज से छुटकारा। लिये दासत्व स्वीकार करनेवाला ऋणदास कहलाता है। ऋणापाकरण, ऋणापकरण देखो। ऋणमतकण (सं० पु०) ऋणो मत्कुण इव, ७-तत्, ऋणार्ण (सली.) ऋणपर ऋण, सूददरसूद । ऋणं परवतर्ण ममैव इति कुणति वदति, ऋण- ऋणिक (सं० त्रि०) ऋणमस्यास्ति, ऋण-छन् । 'अस्मत्-कुण-क। प्रतिभू, लग्नक, जामिन्। ऋणी, कर्जदार। ऋणमागण ( स० पु०) ऋण मार्ग यते परार्थ स्वगत- त्वेन प्रार्थयते, ऋण-मार्ग-ल्यु : प्रतिमू, जामिन्, अपनी . "हिगुण प्रतिदातव्य ऋणिक तस्य तद्धनम् ।" (याज्ञवल्क्य ) जिम्मेवारी पर दूसरेको रुपया उधार दिलानेवाला। | ऋणिधनिचक्र (स० क्लो? ) तन्त्रोक्त ग्राह्यमन्त्रका ऋणमुक्त ( वि.) ऋणात् मुक्तः, ५-तत्। ऋण शुभाशुभ-प्रकाशक चक्रविशेष। रुद्रयामलमें लिखा है- परिशोध किये हुआ, जो कर्ज अदा कर चुका हो। "कोष्ठान्ये कादशान्येव वैदैन पूरितानि च । ऋणमुक्ति (सं० स्त्री०) ऋणात् ऋणस्य वा मुक्ति: पकारादि इकारान्तं लिखेत् कोठे षु तन्त्रवित् । वत्यस्मात् । ऋण-मुच-क्ति । ऋणपरिशोध, अदा-कज।। प्रथमं पञ्चकोष्ठेषु इखदीर्घ क्रमेण तु ॥ ऋणमोक्ष (सं० पु०) ऋणात् मोक्ष: ५-सत् । ऋण-1 इयं लिखेत् वव विचारे खलु साधकः । परिशोध, अदा-कज । . शेष के कैकशी वर्णान् क्रमतस्तु लिखेत् सुधीः। ऋणमोचन (स. क्लो०) ऋणात् मोचयति, ऋण- षट्कालकालवियदग्निसमुद्रवेद- मुच्-णिच-ल्यु । काशीस्थ तीर्थ विशेष। ( काशीखए ) 'खाकाशशून्धदहनाः खलु साध्यवर्णाः । युग्महिपञ्चवियदम्बरयुक्शशाङ- ऋणया (सं० वि०) १ पापका दण्ड देनेवाला, जो व्योमाब्धिवेदशशिनः खलु साधुकर्णाः । इजीबको दबाता हो। २ पाप वा ऋण दूर रखने- नामाझलादकठवादगजभूक्तशेष वाला, जो इजाब या कज़ को अलग रखता हो। ज्ञात्वीभयोरधिकशे पमृगं धनं स्यात् ॥"