पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४४१

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४४. ऋतुमती- ऋतुवेला अनुलेपन, तैलादिमर्दन, नखच्छेदन, धावन, अतिशय “प्रथमतौं तु पुष्पिण्या: पतिपुववती स्त्रियाः । हास्य वा उच्चैःस्वरकथन, उच्चशब्द-श्रवण, अवलेखन, अक्षतैरासन कुर्यात्तस्मि'स्तामुपवेशयेत् ॥ हरिद्रागन्ध पुष्यादीन् दद्यात्ताम्ब लकम्जः । वायुसेवन और परिश्रम छोड़ देना चाहिये। क्योंकि आशिषो वाचयेबुस्ता: पतिपुत्रवती भव ॥ गर्भका सन्तान दिवानिद्रासे निद्राशील, अञ्जनके दौन राजन' कुर्यात् सदीपे वासयेदर है। व्यवहारसे अन्ध, अश्रुपातसे विकृतदृष्टि, स्नान एवं ताः सर्वाः पूजयेत् पश्चात् गन्धपुष्याक्षतादिभिः ॥ अनुलेपनसे दुःखित, तैलादिके मर्टनसे कुष्ठयुक्त, लवणापूपमुङ्गादि दद्यात्ताभाः स्वशक्तितः ॥" (प्रयोगपारिजात) नखच्छेदनसे कुनखी, धावनसे चञ्चल, अतिशय कथनसे ऋतुमती स्त्रीको प्रथम ऋतुमें ही पडोसकी पति- प्रलापी, उच्चशब्दके श्रवणसे वधिर, अवलेखनसे चञ्चल, पुत्रवती नारी अक्षतका आसन बनाकर बैठाती हैं। वायुसेवन तथा परिश्रमसे उन्मत्त और अतिशय हास्यसे फिर हरिद्रा, गन्धपुष्य, ताम्ब ल एवं माल्यादि दे और दन्त, पोष्ट, तालु एवं जिह्वामें कपिशवर्ण बन जाता है। 'तम पुत्रवती हो पतिके साथ सुखसे समय वितावों महर्षि सुश्रुतके मतसे स्त्रीको ऋतुमती होनेपर कह वह उसको आशीर्वाद करती हैं। पीछे प्रदीप- तीन दिनतक कुशासनपर शयन, शराव वा पत्रपर विशिष्ट गृह में ले जाकर उसकी भारती उतारी जाती हविष्याबका भोजन और स्वामौका सहवास न करना है। अन्तको ऋतुमतीके घरको स्त्री मङ्गलाचार चाहिये। चतुर्थ दिवस स्नान करके वस्त्रालङ्कार करनेवाली नारियोंको गन्ध, पुष्य और अक्षतादि. परिधान एवं स्वस्तिवाचनपूर्वक पहले पतिको देखना | द्वारा पूज अपनी शक्तिके अनुसार लवण, पिष्टक एवं विधेय है। क्योंकि ऋतुमानके बाद चक्षुमें जैसा पुरुष मुद्गादि देती हैं। पड़ता, वैसा ही सन्तान उपजता है। गर्भाधाम देखो। ऋतुमय (स० वि०) ऋतुविशिष्ट, मौसमी। पतिको एक मास ब्रह्मचर्य रख भार्या ऋतुकालके | ऋतुमुख (स० क्लो०) ऋतुनां मुखम्, ६-तत्। पोर्ण चतुर्थ दिवस घृत और दुग्धके योगसे शालितण्डु लका चान्द्रमासका प्रथम दिन, मौसमका शुरू । अन्न खाना चाहिये। पत्नी भी एक मास ब्रह्मचर्य | ऋतुयाज (सं० पु.) १ ऋतुका यज्ञ। २ प्रातःसव- पालन और उसदिन तैलमर्दन एवं अधिक परिमाणसे नका एक यज्ञ। यह ाज्य शस्त्रसे पहले होता है। माससंयुक्त अन्न भोजन करती है। फिर पति वेदादि ऋतुराज (सं० पु०) ऋतुनां राजा, ऋतु-राजन्टच्,. धर्मशास्त्रपर विश्वास जमा और पुत्रकामना लगा, ६-तत् । राजाहः सखिभ्यष्टच् । पा ५४१६१वसन्त काल, उसी छठी, आठवौं, दशवी या बारहवीं रातको | मौसम-बहार। पत्नीपर पहचता है। चतुर्थसे हादश दिवसके | ऋतुलिङ्ग (सं० लो०) ऋतूनां लिङ्ग चिन्हम्, ६-तत् । मध्य जितना हो सहवास चलता, सन्तान उतना १ ऋतुपर्यायका वसन्तादि चिह्न, मौसमके आसार । हो हृष्टपुष्ट, बलिष्ठ और ऐश्वर्यशाली निकलता २ ऋतुमती होनेका लक्षण, औरतको महोना होनेके है। त्रयोदश दिवससे फिर समागम करना न | आसार। चाहिये। ऋतुवती, ऋतुमती देखो। ऋतुके प्रथम दिवस आयुहीन, द्वितीय दिवस ऋतुविपर्यय (स० पु. ) ऋतुके क्रमका भङ्ग, मौसम- सूतिकागृहमें ही नष्ट और तृतीय दिवसको गमन का बिगाड़। वसन्तादिके स्थानमें शरदादिको धर्म- करनेसे सन्तान असम्पूर्ण-अङ्ग वा अल्पायु होता है। प्रवृत्ति ऋतुविपर्यय कहलाती है। . एतएव ऋतुके तीन दिन गमन करना न चाहिये। ऋतुवृत्ति (सं० पु०) ऋतुषु वृतिय स्य, बहुब्रो । द्वादश दिवस वीतने पर फिर एकमासे पर्यन्त ब्रह्मचर्य । वत्सर, वर्ष. साल। रखते हैं। गर्म देखो। ... ऋतुवेला (स० स्त्री०) ऋतूनां वेला कालः, ६-तत् ।। ..... पाद्य ऋतुमें मङ्गलाचार किया जाता है- . | ऋतुकाल, महीनेका वक्त.।