पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४४२

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ऋतुवैषम्य ऋतेजा ४४१ ऋतुवैषम्य ( स० लो०) ऋतुचर्याका विपरीताचरण, सर्वप्रकार तण्ड लादि, जाङ्गलमांस और नदी-तड़ाग- मौसमके खिलाफ काम। पुष्करिणी प्रभृतिका जल हितकारी है। एतद्भिव ऋतुश:, ऋतुथा देखो। पित्तप्रशमनकारक सकल हो. ट्रव्य व्यवहार करना ऋतुशूल ( स० क्लो०) ऋतुकाल पर रजोरोधसे उत्पन्न चाहिये। तीक्ष्णवीय-अम्ब-उष्ण-क्षार ट्रव्य, दिवानिद्रा, शूलरोग, महीने पर हैज़ बन्द होनेसे पैदा हुआ दर्द। रौट्र, रात्रिजागरण और मैथनसे हानि होती है। पुष्यके वातादिसे मारे जाने पर यह शूल उठता है। हेमन्त एवं शिशिरकालको लवण, क्षार-तिक्त-अम्ल, शोणित पिच्छल, घन एवं स्निग्ध रहता और बहुत तथा कट रस, ,घृत, उष्ण अब, तीक्ष्णपान, माष, गिरता है। योनि और नाभिमें परम दारुण वेदना शाक, दधि, मिष्टान, नतन तण्डल,सकल-प्रकार मांस, होने लगती है। (रसरबाकर) मद्य और मैथन प्रकृतिके व्यवहारसे कोई अनिष्ट ऋतुषटक (स. क्लो०) हिम-शिशिर-वसन्त-ग्रीष्म नहीं आता। नहाने के लिये उष्ण जल ही कहा है। शरत, छहो मौसम। ऋतुस्तोम (सं० पु.) एक दिवस साध्य यन्नविशेष । ऋतुष्ठा, ऋतुस्था देखो। ऋतुस्थला (स. स्त्री०) अप्सरोविशेष, एक परी। ऋतुसन्धि (स० पु.) ऋतो: सन्धिः, ६-तत् । ऋतु-| ऋतुस्था (व.वि.) उचित ऋतुपर नियत, जो मुना- हयका मिलनकाल, दो मौसमोंके मिलने का वक्त.। सिब मौसम पर बंधा हो। वर्तमान ऋतुके सात अन्तिम और आगामी ऋतुके ऋतुमाता (स. स्त्री०) ऋतौ ऋतुकाल-विहित सात प्राथमिक दिवस ऋतुसन्धि कहलाते हैं। | चतुर्थदिवसे नाता, ७-तत् । ऋतुके चतुर्थ दिवस शुद्धिके "ऋत्वोरन्तादि सप्ताहाहतुसन्धिरिति स्म तः।” ( वाग्भट ) लिये स्नान करनेवाली स्त्री। ऋतुसमय, ऋतुकाल देखो। "पूर्व पश्ये दृतुनाता यादृशं नरमङ्गना।" ( मुश्रुत ) ऋतुसम्मिता ( स० स्त्री० ) मुनिखजुरिका, बढ़िया ऋतुमाता स्त्री पहले जैसा पुरुष देखती, वैसा हो पिण्ड खजर। पुत्र उत्पन्न करती है। ऋतुसात्मा (सं० लो०) ऋतुके अनुकूल भोजनादि, ऋतुस्नान (सं० लो०) ऋतौ ऋतुकालविहितदिने मौसमके मुवाफिक खाना वगैरह। सानम, ७-तत्। ऋतुकालीन चतुर्थ दिवसका सान. ऋतुसैव्य (स.वि.) ऋतुषु सेव्यः । ऋतुके भेदानुसार महीने बाद चौथे दिनका नहान । व्यवहार करने योग्य,जो मौसम के मुवाफिक काममें लाने ऋतुहरीतकी (सं० स्त्री०) ऋतुके भेदसे द्रव्य विशेषके लायक हो। सुश्रुतके मतानुसार वर्षाकालको प्राणीका 'साथ मिश्रित हरीतकी, मौसमी हर। भावप्रकाशमें शरीर लिन एवं अग्नि मन्द पड़ जाने और वातादि । लिखा-वर्षामें सैन्धव, शरतमें शर्करा, हेमन्त में सकल दोष उठ खड़े होनेसे क्लोदविशोधक तथा दोष- शण्ठोचूर्ण, शिशिरमें जीरकचूर्ण, वसन्तमें मधु और संहारक कषाय,तित एवं कटविशिष्ट, घन,अधिक स्निग्ध ग्रीष्मकालमें गुड़के साथ हरीतको खानेसे उत्कृष्ट वा अधिक रुक्ष न होनेवाला पदार्थ और उष्ण एवं रसायन होता है। अग्नि-उद्दीपक भोज्य पाहार करना चाहिये। ऐसे ऋते (स'• अव्य.) १ पृथक्-पृथक्, अलग-अलग। समय का ही जल पीना सर्वोत्कृष्ट रहता, नतुवा २विना, वगैरह। उष्णजल मधु मिलाकर लेना पड़ता है। भूमध्यस्थ वाष्य "अवेहि मां प्रौतमते तुरङ्गमात् ।” (रघु हा६३) बचानके लिये खाट या तख्त पर लेटना उचित है। ऋतकर्म (वै० अव्य.) १ त्यागकर, छोड़ के । २ विना, अतिरिक्त जलपान, हिमसेवा, मैथुन, पातप, व्यायाम, '. दिवानद्रा और अजीर्णकर भोजन छोड़ देते हैं : शरत्- ऋतेजा (वै० वि०) ऋते जायते, ऋते-जन्-विट् । कालको कषाय, मधुर एवं तिक्तरस, दुग्ध, मिष्टाव,मधु, । यन्नके लिये उत्पन, जो व्यवस्थाके लिये सच्चा हो। . Vol. III. 111