पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५१०

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एहतमाम-ऐंठा एहतमाम (प. पु. ) निरीक्षण, इन्तिजाम, | एहि (सं० स्त्री०) श्रा-ईह-इन्। १ सम्यक् चेष्टा- देखभाल। यौल स्त्री, खू ब कोशिश करनेवाली पौरत। (सर्व) एहतियात (अ० स्त्री०) १ दक्षता, चौकसी। २ पथ्य, २ एष, यह।। परहेज। एहौड़ (सं० क्लो०) 'एहि ईड़ें' शब्दोच्चारणके साथ एहसान (प्र. पु.) कृतज्ञता, कियेका मानना। । प्रारम्भ होनेवाला कर्म । एहसानमन्द (अ.वि.) कृतज्ञ, एहसान माननेवाला। एहो (हिं. अव्य.) है, ए, परे, भो। ऐ-१ संस्कृत और हिन्दीकी वर्णमालाका हादश ए (हिं. अव्य०) १ क्या, सुन न पड़ा, फिर कहो। अक्षर। इसका उच्चारणस्थान कण्ठ और तालु है। २ आश्चर्य, ताज्जुब। यह दीर्घ और प्लुत भेदसे विविध एवं उदात्त, अनुदात्त ऐचना (हिं० क्रि०) १ आकर्षण करना, खोंचना । तथा स्वरित भेदसे विविध रहता है। फिर अनुनासिक ऐंचाताना (हिं० वि०) फिरी हुई आंखवाला। और निरनुसासिक दो उच्चारण अधिक होते हैं। ऐकार ऐंचातानी (हिं. स्त्री०) आकर्षण, खिंचाव, परम, दिव्य, महाकुण्डलिनी, कोटिचन्द्रतुल्य, विन्दु / नोचस्वसोट । वययुक्त और पञ्चप्राण, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं सदा- ऐंछना (हिं० क्रि०) केश परिष्कार करना, कंधो शिवमय वर्ण है। ( कामधे नुतन्त्र ) एकारके दक्षिण | देना, झाड़ना। भागमें मध्यदेशसे एक ऊर्ध्वगत वक्ररेखा लगाना पड़ती ऐंठ (हिं० स्त्री० ) १ बल, लपेट, मरोड़। २ अभि- है। इस समस्त रेखामें चन्द्र, इन्द्र और सूर्य रहते मान, फखर। ३ अकड़, जोर। ४ हिंसा, हसद । हैं। इसकी मात्रा दुर्गा, वाणी और सरस्वती विविध ऐंठन, 'ठ देखो। शक्ति है। (वों द्वारतन्त्र ) तन्त्रमें ऐकारको लज्जा, ऐंठना (हिं० क्रि.) १ घुमाना, फेरना। २ बल- भौतिक, कान्त, वायवी, मोहिनी, विभु, दक्षा, दामो 'पूर्वक ग्रहण करना, ले लेना। ३ छलसे लेना, दरप्रन्न, अधर, विक्कतमुखी, क्षरात्मक, जगदयोनि, पर, ठगना। 8 घूमना, फिर जाना, बल खाना। ५ अभि- • परनिबोधकारी, ज्ञान, अमृता, कपर्दियो, पीठेश, मान करना, अकड़ना। अग्नि, समावक, त्रिपुरा, लोहिता, राजी, वागभव, ऐंठवाना (हिं. क्रि०) ऐंठने का काम दूसरेसे लेना, भौतिकासन, महेश्वर, हादशी, विमल, सरस्वती, काम- घुमवाना। कोट, वामजानु, अंशुमान, विजय और जटा कहते ऐंठा (हिं० पु.) १ यन्त्रविशेष, एक औज़ार। इससे हैं। वीजवर्णाभिधानोत नाम दन्तान्त और योनि है। रज्जुको आवेष्टन करते हैं। यह एक काष्ठका बनता, तुका अनुबन्धविशेष। ऐकार अनुबन्धयुक्त जिसके मध्य छिद्र रहता है। छिद्र में एक लट्ट दार यजादिगणके मध्य पठित है। उसमें ऐ सकल धातुको दूसरी लकड़ी डालते, जिसके ओरसे छोरतक एक लिट प्रभृति विभक्तिपर सम्प्रसारण पाती है। (अव्य॰) । शिथिल रज्ज बांधते हैं। फिर इसके मध्य भावेष्टन- एतौति, पा-दूण -विच । ३ आह्वान, पुकार, ए, ओ, की जानेवाली रस्मी लगाते हैं। लकडीके किसी परे। ४ आमन्त्रण, बुलावा, आइये। ५ स्मरण, . किनारे लंगर पड़ता है। छिद्र की लकड़ी फेरनेसे याद। ६ सम्बोधन। ७ दूरस्थ वस्तुबोधक। (पु.) प्रविष्टनकी जानेवाली ऐंठ जाती है। २शङ्क, एति प्राप्नोति सर्वम्। ८ महेश्वर। घोंघा। Vol. III. 128