५२६ ओघवत्-ओङ्कारमान्धाता मोघवत् ( स० वि० ) श्रोधः अलवेमादिरस्तास्य, । इस दीपका अवस्थान अति सुन्दर है। इससे भोध-मतुप मस्य वः । १ जलवेगादियुक्त, जोरसे बहने- थोड़ी दूरपर नर्मदाको कावेरौ नानी एक शाखा वाला। (पु.) २ एक राजा। यह प्रोघरथके । बहती है। फिर इसी नामकी एक छोटी नदी नर्मदा- पिता थे। (भारत, अनु० २.) से अलग रह मान्धाताके निकट कावेरीमें जा मिली ओघवती (स. स्त्री०) १ महाभारतोत्र श्रोधवान् है। एक ही स्थानमें दो सङ्गम हैं। ऐसा पवित्र राजाको कन्या। इन्होंने स्वामीके आज्ञानुसार विज- तीर्थ भारतवर्ष प्रति विरल है। पुराणादिका तीर्थ- रूपधारी अतिथि धर्मको अपना शरीरतक दे डाला माहात्मा देखते ऐसे तीर्थ में वास वा स्नान करनेसे था.। धर्मने परितुष्ट हो उन्हें वर प्रदान किया। अशेष पुण्य लाभ होता है। उसीसे यह लोकोपकारार्थ अर्ध देहसे नदी बन यहां नर्मदाके उभय पार्ख पर हरे रङ्गका पहाड़ गयौं। (भारत, अनु० २२०) २ कुरुक्षेत्रको एक नदी। देख पड़ेगा। पहाड़के मध्य जहां नदीका प्रवाह (भारत, भौभ०) चलता, वहां जल गभौर, स्वच्छ और शान्त रहता है। ओङ्कार (सं० पु.) प्रोम-कार। १ प्रणव । पहले जलमें असंख्य कच्छप और मत्स्य खेलते फिरते हैं। श्रोङ्कार उच्चारण कर, पोछे वेद पढ़ते है। ब्रह्माके वह इतने निर्भीक और विश्वासी रहते, कि घाट कण्ठको कोड़ प्रथम श्रोङ्कार और अथ शब्द निकला किनारे लाई छोड़ देनेसे निर्भया खाया करते हैं। था। इससे यह दोनों शब्द माङ्गलिक समझ जाते होपका परिमाण प्रायः एक वर्ग मील है। हैं। ओम् देखो। २ प्रारम्भ, शुरू। ३ सप्त समा प्रोङ्कार लिङ्ग आधुनिक नहीं। स्कन्द, शिव, वयवका प्रथम अवयव। ४ एक लिङ्ग । “ओंकार प्रथमं लिङ्ग पद्म प्रभृति पुराणों में ओङ्कारका नाम उता हुआ हितीयन्तु विलोचनम् ।" (काशीखह) है। शिवपुराणमें लिखा है,-"किसी समय महर्षि ओङ्कारभट्ट-एक प्राचीन संस्क तग्रन्थकार। भूगोलसार नारद गोकण तीथैसे विध्यपर्वतको आये थे। यहां नामक पुस्तक इन्होंने लिखा था । विन्धाने बड़े सम्मानसे उनकी पूजा की। पहले पोवारमान्धाता (सं० पु०) मध्यप्रदेशमें नौमाड़ नारदको विश्वास रहा-विध्यपर्वतके पास सब जिलेके अन्तर्गत नर्मदा नदीका मध्यवर्ती एक हीप। कुछ है, किसी वस्तुका अभाव नहीं; इसीसे विन्ध्य यह अक्षा० २२. १४ उ० और देशा० ७६ १७ पू०पर अहङ्कार करते-हमारे सब है। अतएव नारदने अवस्थित है। चलित नाम मान्धाता है। ओङ्कार- निश्वास छोड़ा था। विन्ध्यने समझ सकनेपर मूर्तिधारी महादेवका मन्दिर रहनेसे इस स्थानको पूछा,-'भगवन् ! मैंने क्या दोष किया, जो आपने ओङ्कारमान्धाता भी कहते हैं। मान्धाताका प्राचीन निश्वास छोड़ दिया है। नारदने कहा, 'विध्य नाम 'वैदूर्यशैल' था। स्कन्दपुराणके रेवाखण्ड में लिखा | तुम्हारे पास सब कुछ है। किन्तु तुम्हारे ऊपर देवता है-राजा मान्धाताने पोङ्गारके निकट प्रार्थना की, जिससे सन्तुष्ट हो उन्होंने वैदूर्यशैलके बदले मान्धाता तस्य तहचनं श्रुत्वा मान्धातुः परमेश्वरः । संज्ञा रख दी। उवाच वचन' देवो मान्धातारं महीपतिम् ॥ सर्वमेतन्न पश्रेष्ठ मत्प्रसादाद्भविष्यति । ___मान्धातोवाच । यन्मे चोर महीपाल दृष्टाहयत्वयाऽनघ । यदि तुष्टोऽसि देवेश वरं दातु त्वमिच्छसि । तदा प्रभृति मान्धाता वैदूर्यों गौयते गिरिः। वैर्यों नाम शैलेन्द्रो मान्धाता ख्यातुमहंतु ॥ अस्य तीर्थसय माहात्मयान्मान्याप्रमुखा नृपाः। - देवस्थानसमं यतत् त्वत्प्रसादाइविष्यति । सर्वकामसमापन्ना लोके क्रौन्ति वैशवे । अन्नदानं तपः पूजा तथा प्राणविसर्जनम् ॥ अवशात् कौनाहापि इयमेषफलं लभेत् ॥" ये कुर्वन्ति नरास्तेषां शिवलोकनिवासिना। ... (स्कन्दपुराच, रेवाखए २१०)
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५२७
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