ओम ५३७ फिर आमाके पादस्वरूप प्रकार, उकार और मकार-। एव ऋग्यजुःसामाधर्वागिरमः ब्रह्म ब्राह्मणेभ्य: प्रश्थामयति नामयति च को अधिकारकर अक्षर (प्रोङ्कार) सर्वदा अवस्थित तस्मादुचाने प्रणवः।" है। आत्माका पाद ही प्रोद्धारको मात्रा है। अथर्वशिखोपनिषदमें प्रोद्धारका स्वरूप विशेष जिस स्थानसे प्राणी जागरित होते, उसो स्थानको। वर्णित है।- वैश्वानर पदवाच्य प्रकार बोलते हैं। यह प्रकार हो ___मोमित्येतदक्षरमादौ प्रयुक्त शान'.ध्यायितव्यम्। ओमित्ये तदचरस्य ओङ्कारको प्रथम मात्रा है। जो व्यक्ति व्यापित्व एवं पादश्यत्वारो देवश्चत्वारो वेदश्चत्वारः । चतुष्पादतक्षर' पर ब्रह्म पूर्वास्य आदिमत्व द्वारा प्रकार तथा वैश्वानरकी साम्य उपा- मावा पृथिव्यकार: स ऋभिग्वे दो ब्रह्मा वसवो गायवी गाई पत्यः । द्वितीयान्तरिचमुकारः स यजुभियजुर्वेदी विशुरुद्रास्त्रिष्टुप. दक्षियाग्निः । सना उठाता, वह समस्त अभीष्ट फल पाता और वृतोयो दौर्मकार म सामभिः सामवेदी विचारादित्याजगत्याहवनौयः । समुदायका प्रादि बन जाता है ।2। स्वप्नस्थान तेजस याबमानेऽस्व चतुर्य , मावा मा लुप्तमकारः सोऽधशमन्त्ररथर्ववेदः सवर्त- हो ओङ्कारको द्वितीय मावा उकार है। जो व्यक्ति कोऽग्निमस्ते विराड़क ऋषि ।" इत्यादि । इसको उत्कर्ष एवं प्रान्त विश्वका मध्यस्थ समझ तैजस ___प्रथमतः 'ओं अक्षर लगा ध्यान करना चाहिये। दृष्टि द्वारा उपासना करता, उसका ज्ञान बढ़ने ओं अक्षरके पाद चार हैं। चतुष्पादविशिष्ट पद लगता, शत्र मित्र उभय उसके पक्षमें समान पड़ता और अक्षर ही परब्रह्म है। इसकी अकारस्वरूप प्रथम उसके वंशमें कोई ब्रह्मज्ञानविहीन नहीं रहता।१॥ मात्रा पृथिवी है। ऋक् मन्त्रद्दारा उपलचित होनेसे प्रान्न नामक सुषुप्त स्थान हो तोय मात्रा मकार इसे ऋगवेद कहते हैं। इसके देवता ब्रह्मा, वसु, है। मिति एवं अपोति द्वारा मकार तथा प्रान्नको गायत्री और गार्हपत्य हैं। द्वितीय पाद उकार अन्त- साम्य उपासना करनेसे अधिकारी जगत्को प्रकृत रिक्ष है। वह यजुर्मन्त्र द्वारा उपलक्षित होनेसे अवस्था देख पाता और ब्रह्माखरूपमें लीन हो जाता यजुर्वेद कहाता है। उसके देवता विष्णु, रुद्र, त्रिष्टप है।११। जो तुरीय ब्रह्म है, वह किसी व्यवहारका और दक्षिणाग्नि हैं। तृतीय पाद-दो मकार हैं। विषय नहीं। वह प्रपञ्चविहीन और मङ्गलमय है। साममन्त्र द्वारा उपलक्षित होनेसे सामवेद नाम पड़त वही 'एकमेवाद्वितीय महावाक्यका लक्ष्य और पोङ्कार है। देवता विष्णु एवं आदित्य हैं। जगती पावहनीय स्वरूप है। वह समुदायमें जीवात्माके भावसे विराज है। प्रोङ्कारके अन्तमें जो पईमात्रा रहती, वही रहा है। जो उसका प्रकृत तत्त्व समझ सकता, वही लुप्त प्रकार है। इसका विराम लोप हो जानेसे स्पष्ट स्वीय जीवात्मा द्वारा परमात्माके साथ मिलता है।१२। समझ नहीं पड़ता। आथर्वण मन्त्र द्वारा संयोजित पथर्वशिराके मतमें- . होनेसे इसको अथर्ववेद कहते हैं। इसके देवता संवर्तक अग्नि, वायु विराट और एक ऋषि नामक "हदि त्वमसि यो नित्व विस्रो मावा: परस्तु सः।" अम्नि हैं। जो हृदयमें नित्य रहते, उन्हों आपको प्रणव मोङ्कारके शिरोभागकी मात्रा अतिरमणीय, प्र.उ-म् तीन मात्रा कहते हैं। उन्हीं दिस्थित दीप्तिमान और स्वप्रकाश है। पोङ्कारको प्रथम मावा पुरुषका उत्तरभाग श्रोङ्कार है। प्रोकार ही सर्वव्यापी, (अकार ) रक्तवर्ण है। इसमें सर्वदा ब्रह्मा अवस्थान अनन्त, तारक, शुक्ल, सूक्ष्म, विद्युत् और ब्रह्म है। करते हैं। ब्रह्मा ही इसके अधिष्ठाट-देवता भी हैं। जो ब्रह्म है, वह एक है। वही रुद्र, वही ईशान हितोय मात्रा (उकार) शुक्लवर्ण है। इसमें रुद्र और वही महेखर है। . रहते हैं। रुद्र हो इसके पधिष्ठाट-देवता भी ___ अनन्तर अथर्वशिरा निर्देश करती है- हैं। ढतीय मात्रा (मकार ) कृष्णवर्ण है। इसमें .. “अथ कमादुच्यते पोधारः यस्मादुच्चार्यमाण एव प्राणान् ऊर्ध्व मुत्- विष्णु प्रवस्थान करते हैं। इसके अधिष्ठाता भौ कामयसि तस्मादुचाते पोबारः। अथ कस्मादुचाते प्रयवः यस्माटुच्चार्य माण! विष्णु ही हैं। चतुर्थ मात्रा (लुप्त मकार ) सर्व वर्ण- Vol. I. • 135
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५३८
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