पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५३९

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भोम् मय है। इसमें विद्यत् विराजमान है। ईश्वर । एवं प्रभुशक्तिसम्पन्न है। वही सकल जीवोंके मध्य इसका अधिष्ठा-देवता है। इस प्रोङ्कारके चार पद | एक भावसे अवस्थान करता है। फिर उसीने इस और चार मुख हैं। नादसंज्ञक लुप्त मकाररूप पधै अपरिच्छिन्न आकाशको बनाया है। उक्त नादान्त मात्रा इस पोङ्कारकी चतुर्थ मात्रा है। इसको सूक्ष्म प्रणवके ध्यान कालपर समझना पडेगा-इसमें ब्रह्मा. मात्रा कहते हैं। स्थलमात्रा इख, दोघ तथा प्लुत विष्णु, रुद्र, देवर और शिव पांचो देवता विद्यमान भेदसे तीन प्रकारको होती है। 'ॐ' एकमात्रा विशिष्ट हैं। अधिक यज्ञ करनेसे अधिक फलप्राप्तिकी भांति होनेसे इस्त्र, हिमावाविशिष्ट (ओं ओं) होनेसे दोघे पञ्चावयव ओङ्कारको स्थिर चित्तसे क्षणकाल भी ध्यान और विमात्रा (ओं ओं ओं) विशिष्ट होनेसे प्लत करने से शत शत यज्ञ का पुण्य मिलता है। समुदाय कहाता है। अनुपमरूप शान्तभावापन्न स्वप्रकाश ज्ञान, योग और ध्यानमें यह मङ्गलमय ओङ्कार हो चतुर्थमात्रा प्लत प्रयोगमें अभिव्यक्त पड़ती, वह किसी एकमात्र अवलम्बन है। शब्द द्वारा समझपर नहीं चढ़ती। ओङ्कार एकवार | जितन वैदिक याग-यन्त्र कहाते, उन सबको छोड़ मात्र उच्चारित होनेसे मनके साथ सकल प्राण ओङ्कार अध्ययन करने पर हिज निश्चय ही गर्भवाससे वायुको षट्चक्रभेदपूर्वक सुषुम्ना नाड़ी द्वारा अई देश छुट जाते हैं, फिर गर्भवास-जनित कष्ट नहीं उठाते।" (शिरोदेश )में उतनामित करता है। इससे इसको “आत्मानमरणि कृत्या प्रणवञ्चोत्तरारयिम् । ओङ्कार कहते हैं। ध्याननिमथनाभ्यासाद्देवं पश्यनिगूढवत् ॥” (ब्रह्मोपनिषद) सकल प्राणवायुको नम्रता और कुम्भकादि द्वारा पात्माको अरणि (निर्मन्थ काष्ठ) और प्रणवको गतिरोध करनसे पोङ्कारको 'प्रणव' कहते हैं। उत्तरारणि* बना पुनः पुनः ध्यानरूप निमन्थन हारा मोङ्कार चार भागमें अवस्थित होनेसे चार देवता गूढ़वस्तु की भांति परमात्माको देखना चाहिये । (ब्रह्मा, रुद्र, विष्णु और ईखर ) रखता और चार वेद पहले ही कहा जा चुका-ओङ्कार हो ब्रह्म (ऋक्, यजुः, साम और अथर्व )का उत्पत्तिस्थान पहचानने का एक मात्र उपाय है। इसोसे उपनिषदमें ठहरता है। प्रकार, उकार प्रभृति ओङ्कारके जो प्रोङ्कारका खरूप विशेष वर्णित है- चार पाद होते, ध्यानके समय उन्हें छोड़ना न चाहिये। "ओमित्ये काचरं ब्रह्म यदुक्त ब्रह्मवादिभिः ।। किन्तु अकारादि विशिष्ट श्रोङ्कारको ही ध्यान करना शरौरं तस्य वक्ष्यामि स्थान काल लय तथा ॥ उचित है। वैसा होनेपर अकारादिके (अधिष्ठाता) तव देवास्त्रयः प्रोक्ता लोका वेदास्नयोऽग्रयः । देवता समुदाय दुःख और भयसे उपासकको अवश्य तिम्रो मावाध मावा च वाक्षरस्य शिवस्य च ॥ हो त्राण करेंगे। वाणकारी होनेसे ही स्वयं विष्णुने ऋग्वेदो गाई पत्यश्च पृथिवी ब्रह्म रव च । श्रोङ्कार और उसकी मात्राको ध्यान किया था। इसोसे पकारस्य शरीरन्तु व्याख्यातं ब्रह्मवादिभिः । यजुर्वे दोऽन्तरिचञ्च द चणा निस्तथ व च । वह असुरोंको जीत सके । इन्द्रिय संयत रख विषय भगवान् देव उकार: परिकोर्तितः ॥ ओङ्कारको ध्यान करनेसे ही पितामह ब्रह्मा (बहत्)। सामवेदस्तथा दौशाहवनौयस्तथ व च । बने अर्थात् ब्रह्मा जगत्सृष्टि करने में समर्थ हुये थे। ईश्वरः परमो देवो मकार: परिकीर्तितः ॥ "क्योंकि ईखर हो. समुदाय सृष्टिका कर्ता है। सूर्य मण्डलमिवामात्यकार: शङ्कमध्यगः । इसौसे विष्णुने श्रोङ्कारामक नादान्त शान्त ब्रह्ममें मन उकारश्चन्द्रसङ्काशस्तस्य मध्ये व्यवस्थितः ॥ लगा उसी प्रोङ्कारात्मक जगदीखरको ध्यान किया। मकारचाग्निसङ्कायो विध मो विद्युतोफ्मः । भोङ्कारात्मक परमेश्वरने ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र एवं तिम्रो मावास्तथा ज्ञेया: सोमसूर्याग्नितेजसः । पञ्चभूतके साथ समुदाय इन्द्रियको बनाया था। वह

  • जिन दो काष्ठोंको परस्पर मन्थन करनेसे पनि उपलवा, उनमें

सकल कारणका सृष्टिको और एकमात्र मङ्गलमय नौकालका परणि भोर ऊपरवालेका उत्तरारथि नाम पड़ता है।