भोम् ५४१ अधिक सहज नहीं। योगी प्रथम केवल प्रकार जपते । है। ईश्वरतत्पर योगी सूर्यकिरणको भांति शुद्ध हैं। रीतिके अनुसार अभ्यास हो जानेसे पीछे दूसरा स्फटिक तुल्य कोई पदार्थ पा जाते हैं। अक्षर उच्चारण करना पड़ता है। ओडारकै उच्चारणको “ओं अकारो दचिण: पच उकाररू त्तरः स्मृतः । प्रणाली पर पृष्ठमें देखो। मकारस्तस्य पुच्छ वा अई मावा शिरस्तथा ॥१. ॐ योगियोंका प्रधान अवलम्बन है- भाग्ने यो प्रथमा मावा वायव्यैषा वशानुगा ॥६ "ओं योगशिखां प्रवक्ष्यामि सर्वभावेषु चौत्तमाम् । भानुमण्डलसङ्काशा भवेन्मावा तथोत्तरा। यदा तु ध्यायते मन्त्र गावकम्पोऽभिजायते ॥१ परमा चार्थ मावा च वारुणौं तां विदुई घाः ॥७ भासनं पद्मकं वध्वा यच्चान्यदापि रोचते । कलावयानना वापि तासां मावा प्रतिष्ठिता। कुर्यानासाग्रदृष्टिञ्च इस्तौ पादौ च संयुतौ ॥२ एष ओडार पाख्यातो धारणामिर्निबोधत ॥" (नादविन्टु उपनिषत्) मन: सर्वव संयन्य ओडारं तव चिन्तयेत् । प्रकार दक्षिण एवं उकार उत्तर पच, मकार ध्यायते सततं प्राज्ञो हत्कृत्वा परमेष्ठिनम् ॥३” (योगशिखोपनिषत् पच्छ और अमावा उसका मस्तक है। प्रथमाको सर्वश्रेष्ठ योगशिखा कहती-मन्त्रके ध्यानकाल आम्ने यो, हितोयाको वायवी, हतीयाको भानुमण्डल- गावकम्प उपस्थित होता है। पद्मासन अथवा अन्य : समा और प्रहमाताको पण्डित वारुणी कहते हैं। कोई अभिलषित आसन लगा और हस्त, पद, एवं उक्त मावावोंके मध्य कलत्रयानना मात्रा प्रतिष्ठित है। मन:संयमपूर्वक हृदयमें परमेष्ठीको बैठा प्रान प्रोङ्कार इसी समुदायका नाम भोङ्कार है। प्रोकारका बोध चिन्ता किया करते हैं। धारणासे होता है। फिर योगशिखामें देखते हैं- "भूमिमाये समै रमा सर्वदोषविवर्जिते । "वयो लोकास्त्रयो वेदास्त्रयः सन्ध्यास्त्रयः सुराः । कृत्वा मनोमयौं रचा नया चैवाध महलम् ॥१७ वयोऽग्रयो गुणास्त्रीणि स्थिताः सर्व वयाचर ६ पद्मकं स्वस्तिकं वापि मद्रासनमथापि वा। वयानामचर प्राप्त योऽधौतेऽपामचरम् । वध्वा योगासनं समागुत्तराभिमुखः खितः ॥१८ तेन सर्वमिदं प्राप्त लब्ध तत् परमं पदम् ॥७ नासिकापुटमङ्ग ल्या पिधायैकेन मारुतम् । पुष्यमध्ये यथा गन्धः पयोमध्येऽस्ति सर्पिवत् । भावश्च धास्वेदग्नि शब्दमेवामिचिन्तयेत् ॥१८ विलमध्ये यथा तैलं पाषाणेष्विव काञ्चनम् ॥८ ओमिल्ये काचरं ब्रह्म भोमित्य केन रेचयेत् । इदिस्थाने स्थितं पनं तच्च पद्ममधोमुखम् । दिब्यमन्त्रे व बहुश: कुर्यादात्ममलच्यु तिम् ॥" २० (अमृतविन्दु-उ०) ऊर्ध्व नालमघोविन्दुस्तस्य मध्ये 'स्थतं मनः ॥ . सर्वदोषशून्य समतल भूमिभागमें मनोमयी रक्षा प्रकारे शोचितं पद्ममुकारेणैव भिद्यते । मकार लभते नादमध्मावा तु निशला ॥१० विधान कर मण्डल रूप बनाये। अनन्तर पद्मक, शुद्धस्फटिकसा किञ्चित् सूर्यमरीचिवत्। स्वस्तिक अथवा भद्रासन नामक योगासन लगा उत्तर- लभते योगयुक्तात्मा पुरुषोत्तमतत्परः ॥११" मुख उपवेशनपूर्वक एक अङ्गुलि द्वारा नासापुटको तीन लोक, तीन वेद, तीन सन्ध्या, तीन देवता,तीन पाच्छादन कर अपर नासापुटसे वायु भाकर्षणपूर्वक अग्नि और तीन गुण-समस्त हो 'पों'के तीन अक्षरमें पग्नि शब्द चिन्ता करना चाहिये। (उसके पोछे) सबिवेशित है। जो व्यक्ति यह तीनों अक्षर पाठकर एकाक्षर ब्रह्मस्वरूप प्रोम् शब्दसे रेचक निकाल दिव्य- पौछ अधै अक्षर पढ़ता, उसे परम पद मिलता है। मन्वके द्वारा पात्मशुद्धिं करे। पुष्पके मध्य गन्ध, दुग्धके मध्य पृत, तिलके मध्य तेल | “वर्णववात्मिका येते रेचकपूरककुम्भका:! . और पाषाणके मध्य काञ्चनको भांति हृदयमें अधोमुख . स एष प्रभवः प्रोक्तः प्राणायामश्च तन्मयः ॥” (योगी याज्ञवल्क्य) जवनाल पद्म रहता, जिसमें मन बसता है। रेचक, पूरक और कुम्भक तीन वर्णामक होते प्रकारके द्वारा शोचित और उकारके द्वारा भिन्न हो हैं। फिर उक्त तीनों वर्ण प्रणवामक हैं। इससे पन मकारमें शब्द साम करता है। अमात्रा निश्चल | प्राणायाम प्रणवमय रहता है। . Vol. III. 136
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