पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५४१

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ओम् ब्रह्मा उत्पन्न हुये हैं। इसी एकाक्षरसे उकार स्वरूप “ओं तत्सदिति निदेशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्म तः। विष्णु और मकारस्वरूप रुद्र निकले हैं। इसके मध्य ब्राह्मणास्ते न वेदाश्च यज्ञाच विहिता: पुरा॥ तस्मादीमित्य दाहृत्य यज्ञदानतपः कियाः। अकारस्वरूप ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, उकाररूप विष्णु पालन- प्रवर्तते विधानोना: सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ कर्ता और मकाररूप इन दोनों के प्रति अनुग्रह- तदित्यनभिसन्धाय फलं यजतपः क्रियाः । कारी हैं। इसमें प्रकाररूप ब्रह्मा वौजस्वरूप, दानक्रियाच विविधाः कियन्त मोक्षकाविभिः ॥ उकार-रूप विष्णु योनिस्वरूप और मकाररूप रुद्र सद्भावे साधुभावे च सदित्ये तत् प्रयुज्यते । निषेककर्ता हैं। वौज, योनि, निषेक और शब्द प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युजाते॥" ब्रह्मरूप चारो प्रणवात्मक हैं। शब्द ब्रह्मरूप निषेक- . (गौता १७० २३२६ शो०) कर्ता महेश्वरकै इच्छानुसार अपनेको पृथक् कर परमात्मा ब्रह्मके तीन नाम हैं-ॐ तत् और सत्। अवस्थान करते हैं। इसी शब्द ब्रह्मस्वरूप ईश्वरके | । इसीसे ब्रह्मवादी प्रोङ्कारके उच्चारणसे यज्ञ, दान और लिङ्गसे अकारस्वरूप वीजको उत्पत्ति हुयी थी। तपस्यादि क्रिया सर्वदा अनुष्ठान करते हैं। मोक्षा- वह वीज फिर उकाररूप योनिमें पड़ बढ़ने लगा। काही 'तत् शब्दके उच्चारणसे फलाकाङ्कारहित तप, पीछे उससे सोनेका एक अण्डा निकला था। सहस्र । यज्ञ और दानादि कार्यका अनुष्ठान किया करते हैं। वर्ष बीतने पर महेश्वरकी इच्छाके अनुसार विखण्ड है पा! 'सत्' शब्द साधुभाव बतानेको बोला जाता होते उससे हिरण्यगर्भ उतपन्न हुये। उसके ऊर्ध्व- है। इसके अतिरिक्त यज्ञ, तपस्या और दानादि वर्ग और अधोभागसे पाताल निकला। प्रशस्त कार्यमें भी सत् शब्दका प्रयोग होता है। प्रकार रूप जो ब्रह्मा उपजे, वही सर्वलोकके सृष्टि (ॐ तत्-सत् त्रिविध ब्रह्मका नाम उच्चारण करनेसे ही कर्ता हैं। उन्होंने सत्व, रजः और तमः गुणत्रयके | सकल कार्य सिद्ध हो सकता है)। भेदसे तीन मूति धारण को हैं। (लिङ्गपु० ७म प०) योगशास्त्रके मतसे ॐ मन्त्र जप न करनेसे किस भगवान् मनुके मतसे- प्रकार योगी सिद्ध हो सकता है! यह मन्त्र जप "चकारचाप्युकारच मकारच प्रजापतिः । करनेसे परम कारुणिक भगवान भक्तोंके चित्तको वेदवत् निरदुहत् भूर्भुवस्खरिति विधा ॥” (२७६) एकाग्रतासाधक शक्ति देते हैं। योगसूत्रकारने कहा अकार, उकार एवं मकार और भूः, भुवः, स्व: है-"तज्जपस्तदर्थभावनम् । ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽपान्तरायाभावाच ॥" व्यावृतित्रयको प्रजापति ब्रह्माने यथाक्रम तीनों वेदसे ___उस प्रणवका जप तथा अर्थ भावना करनेसे उहार किया था। ईश्वरतत्त्व देख पड़ता और व्याधि, अकर्मण्यता, संशय, अक्षर निघण्टमें लिखा है- अनवधानता, आलस्य, इन्द्रियके विषयको प्रबलता “ोहारी बलस्तारो विन्दुः शक्तिस्त्रिदेवता प्रभृति अन्तराय भगता है। प्रणवो मन्त्रगर्भश्च पञ्चदेवी ध्रुव: शिव ॥ भगवान् मनुने कहा है- मन्त्राा परम वीज मूलमाद्यश्च तारकः । “प्राककुशान् पर्युपासौनः पवित्रं चैव पावितः । शिवादि व्यापको व्यक्तः परं ज्योतिश्च संविदः" . प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्तव ओकारमर्हति ॥” ( १७५ ) . . ओङ्कार वतुल, तारक, विन्दु, शक्ति, त्रिदेवता, | कुछ कुश पूर्वाभिमुख रख, उनके ऊपर बैठ प्रणव, मन्त्रगर्भ, पञ्चदेव, ध्रुव, शिव, आदिमन्त्र, और दोनों हाथमें कुश ले पवित्र होना चाहिये। परमवीज, मूल, आद्यतारक, शिवादिव्यापक, व्यक्ता, फिर पञ्चदश हस्वस्वर उच्चारणके उपयुक्त समयमें तीन श्रेष्ठ, ज्योति: और संविद है। वार प्राणायाम द्वारा शुद्ध होनेपर अधिकारी प्रणवोच्चा- यह ॐ शब्द मन्त्र विशेष है। यह मन्त्र भगवानको | रणके योग्य बनता है। अति प्रिय है। किन्तु योगी जिस भावसे ओङ्कार जप करते, वह