पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५६२

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औनौत-श्रीपच्छन्दसिक औनीत (स. क्ली०) अखरोगविशेष, घोड़ेकी एक ; कि जो जिस वर्णका याजक होता, उसमें उसोका बौमारी। गुरुभोजन, अभिष्यन्दि प्रासग्रहण और वर्णत्व आ जाता है। अश्खोसेवा-वजेनसे स्वस्थान-च्यत शुक्र मेहनमें मारा “य' वर्थ यायद यस्त स तदर्थ त्वमान यात्।" (हारित) जाता है। उससे मूत्रकृच्छ्र उपजता है। फिरौपगवक (सं.पु.) उपगवानां समूहः, उपगव- कुपित शोणित मेहनमें शूल उठाता है। महन क्लिब, वुज । गोबोट्रोरखेति । पा रास। १ औपगव समूह, पक्क, कण्डवत् पिड़कायुक्त तथा मक्षिकावत रहता औपगोंका मजमा। (त्रि.)२ औपगव-सम्बन्धीय। और अपने स्थान में प्रवेश नहीं करता। (जयदत्त) . ३ औपगव-पूजक । औन्दूवर (सं० लो०) ताम, तांबा। औपगवि (सं० पु०) उपगवस्व गोष्पतेरपत्वं पुमान, औनत्य (सं० लो०) उन्नतस्य भावः, उव्रत-व्यञ् । उपगव-इन । १ गोष्षतिपुत्र । २ बृहस्पतिवान १ उवति, तरक्को। २ उच्चता, उंचाई। उद्दद। औनेत्र (स क्लो०) उन्नेतुः कर्म भावो वा, उबे औपग्रस्तिक (सं० पु.) उपग्रस्त ग्रासकालं भूतः, अण। १ उन्नयन, उत्तोलन, उन्नेताका कार्य, उठाव, ठञ् । ग्रहण, राहुग्रस्त चन्द्र वा सूर्य, कुसूफ । चढ़ाव। २ उन्नेबत्व। प्रोपग्रहिक (मं. पु०) उपग्रह ठन। राइग्रस्त औपकर्णिक (स० वि०) उपकर्ण भवः, उपकर्ण-ठक् । । चन्द्र वा सूर्य । कर्णके समीप उत्पन्न, कानके पास रहनेवाला। औपचारिक (सं० पु.) १ उपचार, रसाई, पहुंच। औपकलाप्य ( स० त्रि.) उपकलाप भवम्, उप- (वि.) उपचारस्य इदम, ठज। कलाप-आ। कलाप-समीपवर्ती, हलके के करीब २ उपचार- . सम्बन्धीय, रसाईके मुतालिक । ३ सालङ्कार, रंगीन, रहनेवाला, जो धेरैके पास हो। नकली। भोपकायन (सं० पु०) उपकस्यापत्वं पुमान्, उपक- औपच्छन्दसिक (सं. त्रि.) उपचन्दस्वानिवृत्तम्, फक। उपकवंशीय, उपकका लड़का वगैरह। औपकाय (सं० को०) १ गृह, मकान्। २ पट- , उपछन्दम-ठक। १ प्रियवाक्य द्वारा निष्पन्न. मोठी मण्डप, डेरा, रावटी। बोतसे निकला हुआ। (क्लो०) २ मात्रावृत्तविशेष । औपकुर्वाणक ( स० वि०) उपकुर्वाण-सम्बन्धीय, ब्रह्म "षड् विषमे ऽष्टौ समे कलास्ताव समै स्वर्णोनिरन्तराः । चर्याश्रमसे गृहस्थाश्रममें जानवाले ब्राह्मणके मुताजिक। न समावपराश्रिता कला वैतालौयेऽन्ते रली गुरु: ॥ औपकलिक (सं० वि०) उपकूलस्य इदम्, उपकूल- पर्यन्ते यो तथैव शेषमौपच्छन्दसिक सुधौभिरुक्तम् ॥” ( वृत्तरवाकर ) ठक्। उपकूल-सम्बन्धौय, साहिलके मुताल्लिक, विषम अर्थात् प्रथम एवं टतीय पादमें ६ मात्रा किनारसे सरोकार रखनेवाला। पौर सम अर्थात् द्वितीय तथा चतुर्थ पादमें ८ मात्रा औपकमिकमिर्जरा (स. स्त्री०) जैनशास्त्रानुसार ' रहने और समस्त मात्रा केवल लघु वा केवल दोघे न विराट। जैन दा निर्जरा वा कर्मक्षय मानते लगने. अथच सम अर्थात द्वितीय, चतुर्थ एवं षष्ठ हैं। औपक्रमिक निजैरामें तपस्याके प्रभावसे कर्मको मात्रा तोयादि मात्रा प्राधित न पड़ने और परि- उठा क्षय कराते हैं। शेषको रगण ( मध्यवर्ण लघु और उसके उभय पार्श्वस्थ औपगव (सं० पु. ) उपगोरपत्य पुमान उपगोरिदं दो गुरुवर्ण विशिष्ट अक्षरवयका नाम रगण है। वा, उपगु-प्राण। १ उपगुका घुत्र, उपगुवंशीय। एक लघु और एक गुरु वर्ष जुड़नेसे वैतालीय छन्द २ उपगु-सम्बन्धीय, उपगुसे सगेकार रखनेवाला। होता है। फिर इस वैतालीयवाले प्रतिपादक शेष उपगु गोप जातिका नामान्तर है। लक्षणाक्ति भागपर यगण (पाद्यक्षर लघु और परवतों पचरहय द्वारा उसके पुरोहितका भी अर्थ निकलता है। क्यों गुरु होनसे यमण कहाता है) और रगण रहनेसे Vol. III. 141 .