पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६३

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इन्द्रियग्राम-इन्द्रियबोधन रूपतो स्पष्ट दीख पड़नेसे उद्भत है और भजन-कपालस्थ । पीने मात्रसे तो उसका ज्ञान प्रत्यक्ष हो जाता है अग्निका रूप 'यदि इस कपालमें अग्नि न होती उसीप्रकार विषय-सन्निकर्ष द्वारा समस्त अनुभव तो किसी तरह भी जौ आदिका मुंजना न होता प्राप्त होता है इसीसे सकल इन्द्रियां ज्ञानमें कारण इस अनुमानसे गम्य होन के कारण, अनुत है। मानौ गयी हैं। विषय-सन्निकर्ष उसका व्यापार इसी प्रकार रस गन्धादिको भी समझना चाहिये। होनेसे जनक और ज्ञान जन्य है। इसमें उद्भत रूप, उद्भत रूपविशिष्ट ट्रव्य, पृथक्त्व इन्द्रियजित (सं. त्रि.) इन्द्रियको जोतनेवाला, जो (विभिबता), संख्या (एकत्व हित्वादि), विभाग इन्द्रियके वशमें न हो। (बांध ), संयोग (मेल), परत्व (दूरत्व ), अपरत्व इन्द्रियज्ञान (सं० क्लो०) इन्द्रियजन्य वा प्रत्यक्ष ज्ञान, (निकटव), स्नेह (तैल जलादिमें रहनेवाले मिथ- देखो-सुनी बात। करण-समर्थ पदार्थ), द्रवत्व (तरलत्व) और परिमाण इन्द्रियदमन ( स० पु०) इन्द्रियगाको निग्रह करने का (मिकरार ) ये समस्त पदार्थ चक्षुः द्वारा ग्राह्य हैं। कार्य, इन्द्रियको वृत्ति घटाने का काम । "क्रियां जाति योग्यहत्तिसनवायञ्च तादृशम् । इन्द्रियदोष (सं० पु०) इन्द्रिय-जन्य दोष। परस्त्री- टल्लाति चक्षुः सन्बन्धादालोको तरूपयोः ॥” गमन, चौर्य प्रभृतिको इन्द्रियदोष कहते हैं। उतक्षेपण, अवक्षेपण, गमन प्रभृति क्रिया, मनुष्यत्व इन्द्रियनिग्रह (सं० पु०) खेच्छाचार-प्रवृत्त इन्द्रिय- पशुत्व प्रभृति जाति और सम्बन्धविशेष समवायको गणका निज-निज विषयमें स्थापन अर्थात् इन्द्रियके योग्यवृत्ति होनेपर चक्षुः आलोक और उद्धत रूपके अधीन न हो उनका दमन करना। यह समस्त धर्मों में सहार ग्रहण करता है। चक्षुः द्वारा किये गये साधारण धर्म है। सन्तोष, क्षमा, दया, श्रस्तय, प्रत्यक्षको चाक्षुष-प्रत्यक्ष कहते हैं। शोच, इन्द्रियनिग्रह, सदबुद्धि, विद्या, सत्यपालन और "उड़ तस्पशवद्रव्यं गोचरः सोऽपि च त्वचः । क्रोधपरित्याग ये दश धर्म मनुने कड़े हैं। योग- रूपान्यच्चक्षुषो योग्य रूपमवापि कारणम् ॥" साधनके समय भी नासिका, कर्ण, वाक्य, मन: प्रभृति पहले जिस स्पर्श शैत्य उष्ण एव रूपका वर्णन | इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयसे रोकना पड़ता है। कर आये हैं, वही स्पर्श उड़त होनेपर त्वक द्वारा ग्राह्य इन्द्रियगणके मध्य कोई भी इन्द्रिय यदि खेच्छाचारिणो होता है। एवं इसप्रकारके स्पर्शसे विशिष्ट द्रव्य भी रहेंगो तो योगसाधनादि धर्मकार्य कुछ नहीं बन त्वकके गोचर होता है। रूपके सिवाय चक्षुःगोचर सकते। मन रोकनेसे हो सब इन्द्रियां वशमं रहती हैं। वस्तुमात्र त्वक्के ग्राह्य है। इस वाच प्रत्यक्षमें भी। इसलिये मननिरोध न होनेसे योगीको किसी भी रूप कारण होता है। क्योंकि जिस वस्तुमें उद्भत रूप कर्ममें सफलता नहीं होती। नहीं रहता, उसका वाच प्रत्यक्ष भी नहीं होता। इन्द्रियप्रयोग (सं० पु.) विषयके साथ इन्द्रियका सम्बन्ध । अतएव उद्धृत रूप होनेसे ही वह होता है। इन्द्रियबध (सं० पु०) अपने-अपने विषयमें इन्द्रियको इन्द्रियग्राम (सं० पु०) १ शरीर, जिस्म । २ इन्द्रिय- शक्तिका प्रतिघात अर्थात् आघात । समूह, हवास। इन्द्रियबुद्धि (सं० स्त्री०) इन्दि, यज्ञान देखो। इन्द्रियघात, इन्दि यवध देखो। इन्द्रियबोधन (सं० त्रि.) इन्द्रियं बोधति, इन्द्रिय- इन्द्रियघ्न (स• पु०) इन्द्रियं इन्ति, इन्द्रिय-हन-क। बुध-णिच्-लु। १ इन्द्रियको चेतन करनेवाला, जो १ रोग, पोड़ा। २ चक्षरोग-विशेष, प्रांखको बीमारी।। रुकको जगाता हो। (लो०) २ इन्द्रियका उत्तेजन, इन्द्रियज (स.नि.) इन्द्रियेभ्यो जायते, इन्द्रिय-जन रुकका जोश। ३ पानसाध्य विकलताबोध मद्य, किसी ड, ५-तत् । इन्द्रियसे उत्पन्न होनेवाला। जिसप्रकार किस्मको शराब। इसको पी लेनेसे सकल इन्द्रियां विना पोये दूधका स्वाद नहीं जाना जा सकता और स्व-स्व कार्यमें उत्तेजित हो जाती हैं।