पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६२

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इन्द्रिय-इन्द्रियगोचर शक्ति विशेषको लब्धि कहते हैं। चयोपशम शब्द देखो। (हिं.) ६ कुस्तीका एक पेंच। जब एक पहलवान् और क्षयोपशम लब्धिके निमित्तसे आत्माका पदार्थों के सरको नीचे गिरा देता है और उसके हाथको कलायो प्रति परिणमन होनेसे जो आत्मामें ज्ञान उत्पन्न होता पकड़ उलटे तौरपर घुमा ऊपरको खींचता है, तब है वह उपयोग है। जैसे कोई जीव सुनना तौ चाहै | इन्द्रिय चढ़ानेका पेंच काममें आता है। इस पंचसे परन्तु सुननेको क्षयोपशमरूप शक्ति न हो तो वह नीचेबाले पहलवान्का हाथ उखड़ जाता है। सुन नहीं सकेगा। इसलिये ज्ञानका कारण होनेसे इन्द्रियकर्म, इन्द्रियकार्य देखो। ज्ञानावरणीय कर्मको क्षयोपशम शक्तिरूप लब्धिको इन्द्रियकास (त्रि.) शक्ति पानेका अभिलाषी, इन्द्रिय माना है। एव उपयोग इन्ट्रियका फल वा | जो ताकत हासिल करना चाहता हो। कार्य है इसलिये कार्यमें कारणका उपचारकर उसे इन्द्रियकार्य (सं० लो०) चक्षुः प्रभृतिका कर्म, आंख इन्द्रिय कहा है। अथवा जिस प्रकार चक्षु आदिक | वगैरहका काम। शब्दाकर्णन, स्पर्शग्रहण, रूपदर्शन, इन्द्रियां आत्माके परिचय करानमें हेतु हैं उसीप्रकार रसास्वादन, गन्धग्रहण, वचनादान, विसर्ग, गमन, उपयोग भी उसमें मुख्य हेतु है इस कारण उपयोगको और आनन्दको इन्द्रियकार्य कहते हैं। (सुश्रुत ) इन्द्रिय (इन्द्र-श्रात्माका परिचायक ) कहा है। इन्द्रियगोचर (सं० त्रि०) उपलभ्य, व्यक्त, जाहिर ऊपर कही गई स्पर्शन आदिक पांचों इन्द्रियां समझ पड़ने काबिल। चक्षुः, कर्ण, जिह्वा, नासिका, हर एक जीवमें समान नहीं होती। वे किसी में एक, त्वक और मनः इन्द्रिय द्वारा छः प्रकारका 'ज्ञान उप- किसौमें दो, किसी में तीन किसमें चार और किसी में | जता है। प्रथमतः इन्द्रिय और वस्तुका संयोग होता है, पांच तक होती हैं। पृथ्वोकायिक (जिनका पृथ्वी फिर आत्मामें उसका ज्ञान आता है। इसलिये इन्द्रियां ही शरीर है), जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, ज्ञानका मार्ग हैं। और उस ज्ञानपथमें पतित वस्तु और वनस्पतिकायिक जीवोंके एक स्पर्श न ही इन्द्रिय इन्द्रियगोचर कहाती है- रहती है। कमि आदि जीवोंके स्पर्शन और रसना | "ब्राणजादिप्रभेदेन प्रत्यक्ष षड़ विध' मतम् । ये दो इन्ट्रियां होती हैं। पिपीलिका (चिंवटी) आदि घ्राणस्य गोचरो गन्धो:गन्धत्वादिरपि स्मृतः ॥ जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियां उदभूतस्पर्श वद्रव्यं गोचर' सोऽपि च त्वचः ।" (भाषापरिच्छेद) होती हैं। भ्रमर मकरी वगैरहके श्रोत्रके सिवाय | घ्राणज आदि छः प्रकारका प्रत्यक्ष होता है। चार इन्द्रियां होती हैं। और घोड़े आदि पशु मनुष्य गन्ध एवं गन्धत्वकी भांति गन्धगत सकल धर्म घ्राणके देव और नारको जीवोंके पांचों इन्द्रियां होती हैं। और उद्भत अर्थात् प्रत्यक्ष होनेवाला स्पर्श, स्पर्श विशिष्ट मन भी आत्माका परिचायक होनेसे इन्द्रिय है। द्रव्य तथा स्पर्शका धर्म स्पर्धत्व प्रभृति सकल पदार्थ परन्तु उसे शास्त्रोंमें अनिन्द्रिय कहा है। क्यों कि त्वकके गोचर हैं। जिस प्रकार ईषत् वश उदरवाली कन्याको अनुदरौ "तथा रसो रसज्ञायास्तथा शब्दोऽपि च श्रुतेः।" कन्या कहते हैं उसीप्रकार ईषत इन्द्रियों के समान अम्ल-तिक्त-कट-कषायादि रस एवं रसगत धर्म होनेसे मन भी ईषत् इन्द्रिय अनिन्द्रिय कहा गया है। रसत्वादि रसनाके और शब्द तथा शब्दगत धर्म शब्दत्व इन्द्रियोंका जिस प्रकार विषय परिमित है-ये देश काल प्रभृति सकल पदार्थ श्रवणके गोचर होते हैं। क्षेत्रको मर्यादामें स्थित ही पदार्थों का ग्रहण कर सकती "उन तरूप नयनस्य गोचरो द्रव्याणि तद्धन्ति पृथक्त्वस'खया । हैं उस प्रकार मन पदार्थों का ग्रहण नहीं करता। विभाग-सयोग-परापरत्व' ने हट्रवत्व परिमाणयुक्तम् ॥" मनका विषय क्षेत्र अपरिमित है। परन्तु पात्माका रूप रस प्रभृति सकल गुण उद्भूत और अनुद्भूत भेदसे परिचायक है इसलिये अन्य इन्द्रियोंके साथ सौसादृश्य | दो प्रकारके होते हैं। दौख पड़नेवालेको उद्भत और न होनेसे ईषत् इन्द्रिय है। (तत्त्वार्थस्वानुसार) । छिपे रहनेवालेको अनुभूत कहते हैं। जैसे घटादि का Vol III. 16