पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६४५

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१४४ कट्टहा-कटी तथा मजिष्ठाका कल्क डाल यथाविधि पकानेसे यह फल ( फालसा), कटुकी, पद्मकाष्ठ एवं उशीर १६१६ तैयार होता है। इसको लगानेसे ज्वर और विदाह। रक्तिक तथा वारि २ शरावक पड़ता है। १शरावक छूट जाता है। (वैद्यकनिघण्ट) शेष रहनेपर इसे चलहेसे उतार व्यवहार करते हैं। कहा (हिं. पु.) महाब्राह्मण, महापात्र । (भावप्रकाश) कट्टा (हिं० वि०) १ स्थूल, मोटा। २ कठोर, कटुङ्ग (सं० पु.) कटु अङ्गमस्य, बहुव्री०। १ तिन्दुक कड़ा। (पु.) ३ कोटविशेष, ज'। ४ जबड़ा। । वृक्ष, गाव, तेंदू। २ श्योणाक वृक्ष, अरल, श्योना। कहार (सं.पु.) अस्त्रविशेष, कटार। ३ टुण्ट क फल, अरलका फत्त। ४ दिलीप नामक कट्ठा (हिं. पु.) १ मानविशेष, जमौन्को एक नाय। एक सूर्यवंशीय राजा। खटाङ्ग देखो। यह पांच हाथ चार अङ्गल बैठती है। एक जरीबमें कटुम्बरा (सं० स्त्री०) प्रसारणो, गन्धालो। बीस कटे लगते हैं। कोई कोई बिस्वांसोको ही कट्ठा कटर (सं० क्लो०) कटुति वर्षति रसान्तरम्, कट- कहते हैं। २ दबका, भट्टी। इसमें धातु गलाते हैं। वरच । चित्वर-कत्वर-धोवर-पौवर-मौवर-चीवर-तौवर-नौवर-गहवर ३ पावविशेष, एक बर्तन। इससे पन्न नापते हैं। कटरम इयराः। उण् ।१ । १ दधिस्नेह, दहीको चिकनई। एक कटे में प्रायः पांच सेर अब समा जाता है। २ दधिसर, दहीको मलाई। ३ तक्र, मट्ठा । ४ व्यञ्जन, वृक्षविशेष, एक पेड़। इसका काष्ठ पधिक कठोर मसाला। होता है। कटरतैल (सं०-क्ली०) ज्वररोगका वैद्यकोक्त एक कट तृण (सं० ली.) १ गन्धण, रूसा घास, मिर तेल, बुखारका एक तेल। यह खल्प और बृहत् चिया गन्ध । २ सुगन्धरोहिषवण, एक खुशबूदार घास। भेदसे विविध बनता है। खल्पकटर तेल तैयार कट फल (स. पु.) कटति कटतया अन्यरसं करनेसे ४ सेर तिलतल, (मठा) ४. सेर और पावृणोति, कट-क्विप, बहुव्री०। १ वृक्षविशेष, सचलखवण, शुण्डो, कुष्ठ, मूर्वामूल, लाक्षा, हरिद्रा कायफल। यह कटु, उष्ण, काश-खास-ज्वरघ्न, उग्र तथा मनिष्ठा सबका कल्क १सेर कड़ाहमें डाल पकाया दाहकर, रुच्य और मुखरोग-शान्तिकर होता है। जाता है। इस तेलको मलनेसे शीत और दाहयुक्त (राजनिघण्ट) २ वार्ताकिवृक्ष, बैंगनका पेड़। २ कोल। ज्वर निवारित होता है। वृहतकटरतल-तिलतैल कट फला (सं० स्त्री०) कट फलमस्याः, बहुव्रोः। ४ सेर, शुक्त ४ सेर, काजिक ४ सेर, दधिसर ४ सेर, १ गान्धारी वृच, खम्भारी। २ वृहत्ती, कटया। बिजौरे नौबूका रस ४ सेर पार .पिप्पलीचित्रक- ३ काकमाची, केवैया। ४ वार्ताको, बैंगन। ५ देव मूल, वचा, वासकत्वक, मञ्जिष्ठा, मुस्ता, पिप्पलीमूल, दाली, सनैया। ६ मृगैर्वारु, सफेद ककड़ी। एला, अतीस, रेणुक, शुण्ठी, मरिच, यमानी, द्राक्षा, कटफलादि (सं० पु०) कषायविशेष, कासरोगका एक कण्टकारी, चिरायता, विल्वत्वक, रक्तचन्दन, ब्राह्मण- काढ़ा। कायफल, रूसा, भार्गी, मुस्तक, धनिया, यष्टिका, अनन्तमूल, हरीतकी, आमलकी, शालपर्णी, बच, हर, शृङ्गो, पित्तपापड़ा, सोंठ और सुराताको मूर्वामूल, जोरक, सप, हिङ्ग, कटकी एवं विडङ्ग पानीमें अच्छी तरह गर्म कर हौंग तथा मधु मिला समुदायका १ सेर कल्क किसी बरतनमें यथारीति पीना चाहिये। इसमें र मधु एक एक पकानेसे बनता है। यह तेल लगानसे विविध विषम माषे डालते हैं। (चरक) ज्वर छूट जाता है। कट फलादिपाचन (सं० लो०) पाचनविशेष, एक अक। कटार (सं० पु०) अस्त्रविशेष, कटारी। यह दीर्घ कालानुबन्धी ज्वरपर चलता है। इसके कटी (सं० स्त्री०) कव्यते कटुरसतया खाद्यते अनु- पौनेसे विदोष, दाह और वृष्णाका वेग घटता है। भूयते वा, कट-उन्-डीप । १ कटुकी, कुटको। इसमें कायफल, त्रिफला, देवदार, रक्तचन्दन, परूषक-1 २ कटुकवलो, एक बेल । ...