पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६५४

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कणाटौरक-कणाद कणाटीरक ( स० पु०) कणाटोर स्वाथै कन्। । यह सन्देह दूर करनेके लिये विश्वनाथ न्यायपञ्चाननने कपाटौर देखो। । लिखा है- कणाद (स पु०) कणं अत्ति भक्षयति, कण-अद- "न च वारवश्वेषु सूझशब्दक्रमैच बायौ कारणगुणपूर्वका र अण। मनिविशेष यही वैशेषिक दर्शनके प्रणेता उत्पद्यतामिति वाच्य अयावत द्रव्यभावित्वेन वायोर्विशेषगुचत्वाभात्र रहे। इनका दूसरा नाम श्रौलुक्य, कणभक्ष, कणभुज (सिद्धान्तमुक्तावली) और काश्यप है। कोई नहीं कहता-प्रथमतः वायुके अवयवमें महषि कणादने 'विशेष' नामक एक अतिरिक्त सूक्ष्म शब्द उठता, फिर उसी शब्दसे स्थल वायमें पदार्थ स्वीकार किया, इसीसे उनके बनाये दर्शनसूत्रका स्थ ल शब्द खुलता है। क्योंकि आश्रय नाश जिसके नाम लोगोंने वैशेषिक रख लिया है। नाशका कारण नहीं, वह वायुका विशेष गुण कैसे कणादके मतसे छह भाव पदार्थ और एक प्रभाव हो सकता है। आश्रय विद्यमान रहते भोजन पदार्थ अर्थात् सब सात पदार्थ हैं। छह भाव- शब्दका विनाश हो जाता, तब पाश्रयनाशको पदार्थो के नाम यह हैं-१ट्रय, २ गुण, ३ करें, शब्दके नाशका कारण कहना किसी मतसे सकस ४ सामान्य, ५ विशेष और समवाय। नहीं पाता। एकमात्र शब्द ही आकाशको सिमित ... द्रव्य प्रथम पदार्थ है। यह नौ प्रकारका होता हेतु है। इस सम्बन्धपर लिखते हैं- है। यथा- "परिशेषानमाकाशस्थ ।” (२०१ श्रा० २७ सू०). "पृथिव्याफ्तेजोवायुराकाशं कालीदिगात्मा मन इति द्रव्यापि।" ___ अन्य अष्टविध द्रव्योंमें शब्द रहना पसम्भव होनेसे . (वैशे० सू० १।१५) शब्द ही आकाशका एकमात्र लिङ्ग (अनुमापक क्षिति, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक, हेतु) है। पात्मा और मनका नाम द्रव्य है। ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व आदि जानके कारण जिसमें गन्ध रहता, उसको विहान् चिति कहता पदार्थको दिक कहते हैं। है। हम जलमें भी गन्ध अनुभव करते हैं जिसमें कृतिज्ञान प्रभृति रहता, उसका नाम वह गन्ध जलका नहीं ठहरता, पृथिवीसे जलपर आमा पड़ता है। उतरता है-जैसे किसी नतन मृत्पात्रमें रख थोड़ी जिस पदार्थके रहनेसे हम सुख, दुःख प्रकृति टेर बाट पौनपर जलसे सोधा गन्ध पाने लगता है। उठाते और विजातीय ज्ञानको झलक देख नहोंगर सुतरां मानना पड़ेगा-आश्रयका गन्ध ही जलमें | उसको संज्ञा मन बताते हैं। अनुभूत होता है। गुण पदार्थ २४ प्रकारका है। यथा-रूप, रस. केवलमात्र शुक्लरूप किंवा स्वभाविक द्रवत्व रखने गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, वियो वाले ट्रव्य का नाम जल है। शुक्ल पोत प्रमृति परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रगत नानाविध रूप देख पड़ने और स्वभावसिद्ध द्रवत्व न शब्द, गुरुत्व, द्रवत्व, मेह, संस्कार, पाप और भी रहनसे पृथिवीको जल कैसे कह सकते हैं। स्वाभाविक उष्णता-युक्त द्रव्य तेज कहाता है। कर्म पांच प्रकारका होता है-उत्क्षेपण, प्रव- अमुष्ण, अशोतल और किसी प्रकारके पाकसे क्षेपण, पाकुच्चन, प्रसारण और गमन । (शे० स०, उत्पन्न न हुये स्पर्शविशिष्ट ट्रव्यको वायु कहते हैं। सामान्य दो प्रकारका है-साधारण धर्म वा जा , जिससे शब्द उठता, उसका नाम पाकाश पड़ता। विशेष। जिस पदार्थ के रहनेसे परमाणवो है। कोई-कोई कहता-वायुसे ही शब्द निकलता, साधा जाता, वही विशेष कहाता है। (वैशे.स. सतरां भाकाशको स्वीकार करना चल नहीं सकता।। समवाय नित्य सम्बन्धको कहते हैं। (वय । (• सू. आरार) Vol. III. 164 ( सू० १०१६)