पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६६०

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कण्टकारीकृत-कण्टकालुक २पहा रेचक कहा है। पदतलमें प्रदाह पड़ने पार जलयुक्त विनष्ट होता है। रागोका बलाबल देख आध पिड़का उठनेसे यह व्यवहार की जाती है। दन्त- तोलेसे घृतको मात्रा बढ़ाना चाहिये। अनुपान भी मूलमें व्यथा बढ़नेसे कण्टकारीका धम और उत्ताप रोगीको अवस्थाके अनुसार उष्णदुग्ध प्रभृति व्यवस्थेय विशेष उपकारी है। डाकर मोरहेडके कथनानुसार है। कण्टकारीका रस यथेष्ट न मिलनसे अष्टगुण यह विशेषतः कफनिःसारक होती है। जल डाल देते हैं। कहीं कहीं लोग कण्टकारीका वीज खाते हैं। कण्टकारीत्रय ( स० का.) वृहती, गणिकारो और कण्टकारीघत (सं० लो०) कासरोगका एक वैद्यकोक्त दुरालभा तीनों द्रश्यका समुदाय । सिद्धयोगमें गणि- औषध, खांसोको एक दवा। यह अल्प, अपर और कारोके स्थानमें गोक्षुर लेते हैं। कण्ट कारोवय तन्द्रा, वृहत भेदसे विविध रहता है। प्रलाप, भ्रम, पित्त, ज्वर, और विदोषको नाश करता ___ अल्प-कण्टकारी और गुलञ्च तीस-तीस पल है। (वैद्यकनिघण) ६० सेर जलमें क्वाथ करे। सवा पांच सेर जल अव कण्टकारी (सपु०) विकत वृक्ष, बैंची। शिष्ठ रहनेसे उस क्वाथको छान लेते हैं। फिर कण्टकारीद्रुम, कटकारौद्रु देखो। इसी क्वाथमें ४ सेर घत पकाना चाहिये। यह कण्टकारीद्दय (सं.ली.) बृहती पौर कण्टकारी हत पौनेसे वाताधिक्य तथा कासरोग छुटता और उभय द्रव्य, छोटो और बड़ी दोनों कटेरी। अम्निका वेग फटता है। कण्टकारीफल (सं० लो०) कण्टकारीका , फल, अपर-कण्टकारीका क्वाथ सवा छह सेर, घृत | भटकट येको गोलो। यह ति, कट क, दीपन, लघु, ४ सेर और राम्रा, बाव्यालक, विकटु तथा गोक्षुर रुक्ष, उष्ण और खास, कास, ज्वर, अनिल तथा समुदायका बराबर-बराबर कल्क १ सेर यथा कफरोगनाशक है। (भावप्रकाश ) विधि पका सेवन करनेसे पञ्चविध कासरोग विनष्ट कण्टकायें (स० पु०) कुटजवच, मकोय । होता है। कण्टकार्या, कटकारो देखो। ___ इत्-मूल, पत्र एवं शाखायुक्त कण्टकारीका क्वाथ कण्टकायोंदि (सं० पु०) पित्तले मज ज्वरका एक सवा छह सेर, घृत ४ सेर पौर वाट्यालक, विकट, कषाय, सफर और बलगमके बोखारका एक काढ़ा या विडङ्ग, शटो, चित्रक, सचल लवण, यवचार, सूखा जौर्यादा। कण्टकारी, अमृता, ब्राह्मण्यष्ठि, शुण्ठी, कच्चा बेल, पामलको, कुष्ठ, खेतपुनर्णवा, प्रतोस, इन्द्रयव, दुरालभा, चिरायता, रक्षचन्दन, मुस्त, दुरालभा, प्राम्सलोनिका, वृहती, हरीतकी, यमानी, पटोल और कट को सब २ तोले प्राधसेर जखमें दाडिम, ऋद्धि, द्राक्षा, रक्तपुनर्णवा, कर्कटशृङ्गी, उबाल आध पाव रहनेसे उतार ले। फिर यह भूम्यामलको, ब्राह्मणय ष्टिका, राम्रा तथा गोक्षुर काढ़ा पित्तश्लेष्मज ज्वरके रोगीको छानकर पिलाना समुदायका बराबर-बराबर कल्क १ सेर अच्छीतरह। चाहिये। कण्ट कार्यादि पाचन पीनेसे पित्त, मा. पका सेवन करनेसे सर्वप्रकार कासरोग एवं कफरोग ज्वर, दाह, तृष्णा, अरुचि, वमि, कास और हृदय एवं छुट जाता है। . पाखेको वेदनाका निवारण होता है। (चक्रपाणिदत्तक्कतसंग्रह) स्वरभेदरोगके अधिकारपर निम्नलिखित कण्ट कण्टकाल (सं० पु.) कण्टं कण्टकव्याप्त फलं कारोघृत कहा है- कालयति उत्पादयति, कण्ट कस-णिच-अण, कण्ट कैः ___ कण्टकारीको कण्टकारीके ही रससे क्वाथ कर कण्टकाकीर्णफलरलयति शोभते, कण्टक-अल-अच्वा। चतांश बचनेपर वाट्यालक, गोक्षुर एवं विकट के १पनसवृक्ष, कटहलका पेड़। २मन्दार, मदार। कल्क और घृत सबको फिर भली भांति पकाते कण्टकालिका (सं० स्त्री०) कण्टकारी, कटाई। हैं। यह पत पीनेसे स्वरभङ्ग और पञ्चविध कास ! कण्टकालुक (संपु.) कण्टकैरलयति कराएं काल-