पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कस्ठरोग उसोको संस्कृतज्ञ शिलाघ कहता है। यह रोग यन्त्र- मधुके साथ गुड़िका बना डाले। यह गुड़िका मुख में साध्य है। सुश्रुतने इस रोगका नाम 'गिलायु' लिखा है। धारण करनेसे गलरोग छूट जाता है। (चक्रदत्त ) गलविद्रधि-समस्त गलदेशका फलना और उसमें ____ युरोपीय चिकित्सकोंके मतसे कण्ठरोग नाना- नानाप्रकार यातना होना गलविद्रधि कहाता है। प्रकार होता है। उसमें सामान्य कण्ठ गोथ ( Simple यह रोग यदि मरस्थानमें न रहे और अच्छीतरह sore throat), क्षतयुक्त कण्ठशोथ (Ulcerated sore- पक उठे, तो छेदन कर देना चाहिये। throat ), गलग्रन्थिप्रदाह (Quinsy or Tonsilitis), ___गलीध-कफ एवं रक्तसे गलदेश अत्यन्त फूल | साङ्घातिक कण्ठशोथ ( Malignant sore-throat ), उठनेपर अबनाली वा जलप्रवेशका पथ रुकना, वायुको पौर साबिपातिक कण्ठरोग (Diphtheria) प्रधान है। गतिका बिगड़ना और तीव्र ज्वरका चढ़ना ही गलौघ । कण्ठशोथ उठनेसे कण्ठमें प्रदाह, निगलने में कष्ट- रोग है। बोध, श्वास छोड़ने में दुःख, कण्ठके स्वरका परिवर्तन खरन-रोगीको मूळ पाने, सर्वदा श्वास जाने, और ज्वर होता है। प्रथम वाधा न देनेसे यह रोग स्वरभङ्ग पाने और कण्ठ मुखानेसे स्वरघ्न रोग समझा। क्रमशः बढ़ जाता है। जिह्वा फलती पार बिगड़ती जाता है। रोगी कुछ पहचान नहीं सकता और है। गलका ग्रन्थि रक्तवर्ण रहता और गलदेशके पीछे वासका पथ सकता है। छोटा छोटा पीला फोड़ा पड़ता है। वृष्णा और मांसतान-गलदेशका शोथ क्रमशः बढ़ते बढ़ते | नाडीको गति बढ़ती है। कभी कभी गाल फूल कण्ठनालीको रुध लेनेसे मांसतान रोग होता है। कर लाल हो जाता है। चक्षु जलने लगते हैं। रोग इस रोगमें शोथ विस्तुत, अति क्लेशदायक और बढ़नेपर चित्तविभ्रम होता है। रोगवृद्धिके साथ ही सम्बमान रहता है। इसमें रोगी बच नहीं सकता। साथ गलग्रन्थि भी बढ़ता और उसमें पूय पड़ता है। वेदारी-पित्तके प्रकोपसे गलदेश एवं मुखमें तान- स्फोटक फट जानेसे स्वास्थ्यबोध होता है। कभी कभी वर्ग तथा दाह और वेदनायुक्त जो शोथ उठता, फटने पीछे ग्रन्थि फिर पूर्ववत् फल उठता है। इसकी उसीका नाम विदारी पड़ता है। विदारोसे सड़ागला चिकित्सा साथ ही साथ होना चाहिये। कारण मांस गिर जाया करता है। रोगी जिस पाख पर चिकित्सा न करनेसे यह रोग साङ्घातिक पड़ जाता अधिक सोता, उसी में पार्श्व में यह रोग होता है। है। ऐसे स्थलमें कठिन ज्वर पाता है। साधारणतः कण्ठरोगमात्र में दारुहरिद्रा, निम्बत्वक, सामान्य कण्ठशोथमें होमिओपाथिक चिकितसा शालच एवं इन्द्रयव सकल ट्रव्योंका क्वाथ अथवा विशेष उपकारी है। भोजन पौछ शीत लगनेसे जो . मधु मिला हरीतकोका कषाय पीना चाहिये। सामान्य कण्ठशोथ हो जाता, उसका औषध डल- १-कटुकी, अतिविषा, देवदारु, पाकनादि, मुस्तक कामरा है। वायुके परिवर्तनसे होनेवाले कण्ठ- और इन्द्रयव सकल द्रव्यका क्वाथ गोमूत्र के साथ शोथपर गेलसेमिनम् चलता है। ज्वर के साथ शीत पान करते हैं। २-पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, लगने और कण्ठशोथ उठनेसे एकोनाइट दिया जाता चित्रक, शुण्ठी, सर्जिक्षार और यवक्षार सकल द्रव्य है। कण्ठवेदना, कण्ठशुष्कता एवं शिरःपीड़ा बढ़ने समभागमें चर्ण कर व्यवहार में लाना योग्य है। और मुख लाल पड़नेसे बेलोडोना खिलाते हैं।' ३-मनःपिला, यवनार, हरिताल, सैन्धव और कण्ठ खिंचने, निगलने में कष्ट मालम पड़ने और दारुहरिद्रा सकलका चर्ण मधु तथा घृतके साथ मुखमें कफ निकलते रहने से माकु रियास उपकारी है। धारण करनेसे मुखरोग एवं गलरोग विनष्ट होता है। क्षतयुक्त कण्ठयोथमें प्रथम बेलोडोना बताते हैं। ४-यवक्षार, गजपिप्पली, पाकनादि, .रसाजन, लघु, पांशवणे अथच अनिष्टदायक क्षत होनेसे एसिड देवदार, हरिद्रा और पिप्पली सकल द्रव्य कूटपीस नाइट्रिक चलता है। दुर्गन्ध और धातुदौर्बल्य