__कण्ठरोग कण्ठरोग (सं० पु०) कण्ठगतो रोगः, मध्यपदलो। हैं। कफज राहिणीरोगमें बदरीफल, शुण्डो, पिप्पली कण्ठनालौके पभ्यन्तरमें उत्पन्न सकल रोग, गलेकी और मरिच प्रतिसारण करना चाहिये। नलीमें होनेवाली सब बीमारी। महर्षि सुश्रुतके कसशालक-कुपित कफ हारा वेरको गुठलीको मतसे कण्ठनालोमें अष्टादश प्रकारका रोग उत्पन्न भांति काष्ठवत् वा शूकवत् वेदनाजनक खर एवं होता है-पांच प्रकारको रोहियो, शालुकण्ठक, स्थिर प्रन्थि पड़नेसे कण्ठ पालक समझा जाता है। अधिजिव, वलय, वलास, एकवृन्द, शतनो, शिलाघ.। यह रोग अस्वसाध्य है। कण्ठ पालकमें : गलविद्रधि, गलौघ, स्वरन, मांसतान और विदारी।। कर तुण्डिकेरो रोगको भांति चिकित्सा चलाना रोहिणौ-दूषित वायु, पित्त, कफ पौर रक्त गल चाहिये। स्निग्ध यवान अल्प परिमाण एकवार देशस्थ मांसको बिगाड़ मांसाकर उत्पादन करता। खिलाया जाता है। है। इससे कण्ठ खुलने नहीं पाता और शीघ्र प्राण ! अधिनि-रक्तमिश्चित कफसे जिह्वापर जिवाय- छट जाता है। इसी रोगको रोहिणी कहते हैं। जैसा जो शोध उठता, उसोका नाम अधिजिन वायुजन्य रोहिणीरोगमें जिह्वाको चारो और अत्यन्त पड़ता है। शोध पकनेसे यह रोग पसाध्य हो वेदनायुक्ता कण्ठरोधक मांसाङ्कर उत्पन हो जाता जाता है। और रोगी स्तम्भव प्रभृति वातजनित उपद्रवसमूहसे ____ वलय-नेमासे गलनालोपर जो दोघे एवं उन्नत दुःख पाता है। पित्तजन्य रोहिणी रोग प्रतिथय शोथ उठता और जिससे मुक्त द्रव्यका पथ सकता, दाह एवं पाकयुक्त मांसाकर शीघ्र ही निकलता है। उसोका नाम वलय पड़ता है। यह रोग पसाब है। विशेषतः रोगीको अत्यन्त वेगवान् ज्वर धर दबाता | क्लास-लेमा और वायु द्वारा गलदेशमें शोथ है। कफजन्य रोहिणी रोग, मांसाङ्कर गुरु एवं स्थिर | उठने और मर्मच्छेदा दारुण वेदना पड़नेसे वलास रहता और विलम्बसे पकता है। कण्ठका स्रोत | रोग समझा जाता है। यह रोग भी साध्य नहीं। कक जाता है। साविपातिक रोहिणी रोममें उक्त एकहन्द-गलदेशका गोल, उबत, दाह एवं कण्ड- तीनों दोषों का लक्षण झलकता और मांसका अकुर विशिष्ट और भार तथा कोमल बोध होनेवाला गम्भीर भावसे पकता है। यह रोग चिकित्सासाध्य शोथ एकन्द कहाता है। इस रोगमें रक्त निकाल नहीं होता। रक्तजन्य रोहिणी रोगमें जिह्वामूल विरेचनादि द्वारा शोधन करना चाहिये । स्फोटक द्वारा व्याप्त हो जाता और वित्तका सकत रक्तपित्तजन्य, मोल एवं पतिपय उव्रत शोध लक्षण देखने में पाता है। भावमिश्रके मतानुसार उठनेसे रोगोको अत्यन्त ज्वर पाता और दाह सताता वैदोषिक रोहिणी रोगमें रोगोका जोवन सद्य नष्ट है। इसो रोगको वृन्द कहते हैं। फिर यही प्रत्यन्त . होता है। कफज रोहिणी तीन रात्रि, पैत्तिक | वेदनायुक्त रहनेसे वातज समझा जाता है। रोहिणी पांच रात्रि और वातज रोहिणी सात शतनो-गलनानीमें मोटो बत्तो-जैसा, कठिन, रात्रिके मभ्य रोगीका जोवन हरण कर लेती है। कण्ठरोधकारी, वातजादि भेदसे नानाप्रकार वेदनायुक्त साध्य रोहिणी रोगमें रवमोचण, वमन, धूमपान, अथच मांसाङ्कर द्वारा अधिक व्याप्त जो शोथ उठता गण्ड षधारण और नस्य हितकारक है। वातज और जिसमें नानाप्रकार यातनाका वेग बढ़ता, उसीका रोहिणी रोगमें रक्त निकलवा सैन्धव द्वारा प्रतिसारण | नाम त्रिदोषज शतघ्नी पड़ता है। इस रोगमें रोगी और ईषत् उष्ण न ह द्वारा पुनः पुनः गण्ड षधारण प्रायः मर जाता है। कराना चाहिये। पित्तज एवं रक्तज रोहिणी में रक्त | शिलाघ-जिस रोगमें दूषित कफ एवं रक्तसे कण्ड के मोक्षण कर प्रियङ्गवर्ण, शर्करा तथा मधु एकमें मिला भीतर आंवलेको गुठली-जैसा स्थिर तथा अल्प वेदना- रगड़ते और द्राक्षा एवं फालसेके क्वाथसे कुल्ला करते युक्त अन्धि उठता और भुक्तद्रव्य संलग्न मालम पडता,
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६६४
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