पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कदलो प्रबल वायु कदली वृक्षको बड़ी हानि पहुंचाता,। श्रेणी में नाना आकारके केले देख पड़ते हैं। यह विफल रहने पर अति अल्प वायुसे ही यह गिर पकने पर सुमिष्ट लगता, किन्तु तरकारीमें ही अधिक जाता है। उस समय बांसको तिकोनी खपाचें लगा चलता है। 'कांच' कैलाको अंगरेजीमें 'मुसा- वृक्षको बचाते हैं। बङ्गाल देशके केलेमें एकप्रकारका पाराडिसिका' (Musa-Paradisica) कहते हैं। कौड़ा लगा करता है। इस कोडेसे भी अनिष्ट हो 'कांठालो' कैलेको कच्चा भी खाते हैं। इसका नाम होता है। कीड़ा लगनेसे वृक्ष मर मिटता है। 'ठूठा' केला है। फिर 'कांठाली' जातिके केलेको कहां कहां कदली मिलती और कैसे विभागको । 'ठूठा' केला कह देते हैं। यह 'कठालो जातीय श्रेणी चलती है ? भारतवर्ष इसका प्रादि वासखान केला एक खतन्त्र श्रेणीका भी होता है। है। किन्तु यहां भी यह पाश्चात्य प्रदेशको अपेक्षा संस्कृत में भी कदलीके नाना भेद कई हैं,- पूर्वप्रदेश और दाक्षिणात्यमें ही अधिक होती है। . “माषिक्यमामतचम्पकाद्या भेदा: कदल्या बहवोऽपि सन्ति ।" पूर्व बङ्ग पौर दाक्षिणात्यके मलवर उपकूलमें कदलो बहुत लगायी जाती है। मत्यमान वा चाटिम पार चमपा नामसे विख्यात है। ___ बङ्गालमें रामरम्भा, अनुपान, मालभोग, पपरिमर्त्य, कांठालीजाति कन्हाईबांसी केला काई १ फुटसे मौ मत्य मान, चम्पक, चीनौचम्पा, कन्हाईबांसी, घीया, ज्यादा लम्बा होता है। फिर 'कालोबज' बहुत मोटा कालोबज, कांठाली प्रभृति कई जातिके केले सर्वापेक्षा रहता है। घीया कांठालोसे घृतको भांति सुगन्ध उत्कृष्ट रहते हैं। इनमें पहले चार पहली श्रेणी, निकलता है। यह उष्ण दुग्धमें डाल देनेसे मक्वनको दूसरे चार दूसरी श्रेण और तीसरे तीन तीसरी तरह घुलता है। श्रेणीके केले हैं। मत्य मानको चाटिम केला भी कांठाली केला पकने पर रङ्ग कुछ पोला पड़ जाता कहते हैं। इन सबमें बिलकुल वीज नहीं होता। और चाटिम पौताभ पाता है। किन्तु चाटिमके कांठालो जातिके अन्यान्य फलों में भी वीज न रहते। ऊपर फुटको-जैसे दाग उभरते हैं। चम्पा केला जिसका नाम शुद्ध कांठाली चलता, उसमें बह-। पकनेसे घोर पीतवर्ण होता है। कांठालो परिपष्ट दिन एक स्थानपर रहनेसे वीज पडने लगता है। पड़ने पर कुछ चौपहला तथा टेढ़ा, चाटिम गोला सिवा इसके मदनी, मदना, तुलसी, मनुवां रङ्गवीर, एवं सौधा और चम्पा केला गोला तथा मोटा लगता पोडा रङ्गवीर प्रभृति कई जातिके केलोंसे किमी है। लाल केलेको सिंदुरिया या चौना केला कहते किसी में अल्प वीज रहता,फिर किसी किसी में बिलकुल । हैं। मत्व मान और कांठाली केलेका उद्भिज्जशास्त्रोक्त देख नहीं पड़ता। बङ्गालमें वौज केला नानाविध | नाम 'मुसा सापीण्टम' (Musa sapientum) है। होते हैं। इनमें यथेष्ट वीज रहते भी मिष्टता बढ़ बङ्गालमें कांठालो जातिके केलेका शस्त्र कुछ जाती है। यशोहरमें 'दये' नामक एकप्रकारका । कड़ा रहता है। फिर 'मत्व मान' जातिवालेका कड़ा रहता है। फिर वीज केला होता है। इसका शबैत बहुत उम्दा शष्य अधिक श्खेत एवं नवनीतवत् कोमल और बनता है। कलकत्तेके निकटवर्ती स्थानों में 'डोगरे' 'चम्पक' जातिवालेका ईषत् अम्बरसयुक्ता, सुगन्धि तथा नामक जो वीज केला उपजता, उसका फल खाया जा | फलके मध्य पौताभ वर्ण होता है। 'कांठालों के नहीं मकता. किन्त मोचा बहत सुखाद लगता है। फनका छिलका मोटा और चम्पाका पतला पड़ता मोचेके लिये ही उसे लगाया करते हैं। 'सोया' है। बङ्गाली मत्व मान केलेका हो अधिक पादर नामक वीज केलाके रससे नानारूप चक्षुरोग आरोग्य | करते हैं। किन्तु इस देशके युरोपीय प्रवासी 'चम्पा' होता है। 'कांच केला, 'कच्चा केला, 'अनाजों केलेको अच्छा समझते हैं। कांठाली और कांच केला प्रकृति केला 'कांच' केलाको जातिके हैं। इस केलेका व्यवहार पधिक है। ___Vol. III. 173