कदली-बदलीस्कन्ध कीजिये। पोछे मूल वृक्षको जड़ से १ हाथ छोड़ समस्त बन्द कर दिया जाता है। पीछे समस्त पत्र डण्ठलके काट डालते हैं। फिर प्रत्यह इस वृक्षमें एक घट साथ काट डालते हैं। फिर पत्र पानसे फिर काटा जल देते जाइये। इमसे फिर पौदा पनपेगा। हाथ करते हैं। उधर गमलेके छेदसे डाल लटक पड़ती बढ़नेसे पुनः पूर्व-कतित स्थानसे काट प्रत्यह जल है। प्रत्यह इस डालपर जल छिड़कते हैं। फिर डालते रहिये। इसी प्रकार बार-बार काटते काटते पत्रमोचा निकलनेसे अग्रभाग काट डालते हैं। जब मोचा निकले, तब फिर न काट मूल वृक्षको अन्तको इससे जो मोचा निकलेगी, वह कदलोवृक्षके मट्टीसे ढांक दे। फिर एक ओर काण्ड और मस्तकपर छत्राकार बन फूल-जैसी देख पड़ेगी। . मोचा दोनों बढ़ेंगे, किन्तु इधर-उधर अवलम्बन न पा २ कदलोमृग, एक हिरन। इसके चर्मका भासन और अर्वको उच्च न जा भूमिपर ही फैल पड़ेंगे। बनता है। ३ पृश्निपर्णी। इससे केला लताको भांति दृष्टिगोचर होगा। इसपर कदलोकन्द (सं० पु०) रम्भामूल, केलेको जड़। . विशेष ध्यान देना पावश्यक है। यह शीतल, बल्य, केश्य, अम्लपित्तजित्, वङ्गिवत्, चौमोचा-चार जातीय केलोंके चार वृक्ष मोठी मधुर और रुचिकारक होता है। (मदनपाल) जडके साथ ले प्रायिये। फिर वृक्षोंको काटिये पौर | कदलीकुसुम (सं.क्लो०) रम्भापुष्य, केलेका फल । हरेक जड़से इस प्रकार बारह आने हिस्सा निका- यह स्निग्ध, मधुर, तुवर, गुरु एवं शीत और वातपित्त, लिये, जिसमें चारोंको मिलानेपर एक पूरी जड़ बना | रक्त पित्त तथा क्षयको दूर करनेवाला है। (वैदाकनिघण्ट) डालिये। पीछे चारों को जोड़ और रस्मोसे अच्छोतरह | कदलीक्षता (सं० स्त्री.) ककटीभेद, किसी किस्मकी बांध ऊपर गोबर लसेट दौजिये। जिस स्थानपर इसे | ककड़ो। लगाते, उस स्थानमें १ हाथ गभौर एक गत बनाते | कदलोजल (सं• क्लो०) कदलोरस, केलेका पानी। हैं। गतका अर्धाश सड़ी घाससे भर इस जड़को जमा| यह शीतल एवं ग्राहक रहता और मूत्र क्वच्छ्र, मेह, और अपर मट्टी दवा देते हैं। कुछ दिन पोछे किल्ला तृष्णा, कर्णरोग, अतिसार,पस्थिस्राव, रक्तपित्त,विस्फोट, फुटता है। जबतक मोचा नहीं पातो, तबतक दूसरी योनिदोष तथा दाहको नाश करता है। (वैद्यकनिघण्ट) कोई तदवोर भौ को नहीं जातो। केवल इतना ध्यान कदलौदण्ड (सं० पु०) मोचाके वृक्षगर्भका कोमल रखना पड़ता, कि वृक्ष बराबर चला चलता है। फिर दण्ड-जैसा भाग, केलेका भौतरी हिस्सा। यह शीतल, मोचा प्रानका उपक्रम होनेसे वृक्षका अग्रभाग अग्निवर्धन, रुथ, रक्तपित्तहर, योनिदोषहर और दृढ़ रन्जसे बांध देते हैं। अन्तको वृक्षसे एक हो प्रसृगदरनाशक है। काल चारो ओर चार जातीय मोचा निकलेंगो। | कदलीनाल, कदखौदण्ड देखो। मोचाको शाखावोंके नौचे तीन-तीन लकड़ियां कदलीमूल (सलो.) रम्भाका मूल, केलेको जड़ । लगा देना चाहिये, जिसमें शाखायें मोचाके भारसे यह बल्य, वातपित्तन और गुरु होता है। टूट न जायें। कदलीमृग (पु०) शबलमृग, एक हिरन। यह कैलेका फूल-किसी मयं वा चम्मक कदलीका छोटा प्रधिकतर पूर्व देशमें प्रसिद्ध है। कदलीमृग बृहत्तम कुलम एक गमलेके पेंदे में बड़ा छिद्रकर इस प्रकार | विडाल-जसा और बिलेशय होता है। (सुबुत) लगे, जिसमें कलमके नीचे पेंदेमें बहुत थोड़ी | कदलीवल्कल (स'• बी०.) कदलौत्वक्, केलेको अर्थात् ८।१० अङ्गलसे अधिक मट्टो न रहे। जितने छाल। यह तिता, कटु, लघु और वातहर होता है। दिन कलम खूब नहीं पनपता, उतने दिन अल्प पल्प (वैद्यकनिघण्ट) जल देना पड़ता है। सब कलम खु ब. पनप पाता, कंदलोसार (सं० पु.) कदलौरस, केलेका निचोड़। सब हाथ ऊंचे बांसके मञ्चपर, उसे चढ़ा जल छोड़ना कदलीखन्ध (सं० पु०) इन्द्रजालविशेष, धोकेको टही।
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६९९
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