पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/७०५

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७०४ जानकाक्षा-कनकस्तरक्षा वर्णवर्ष मृग, सुनहले रणका हिरन। सीताहरणके | कनकसकोचरस ( स० पु० ) कुष्ठाधिकारका रस, समय मारीच नामक राक्षसने मायावससे स्वर्णवण कोढ़को एक दवा। मृत स्वर्ण एवं अन तथा शण्ड मृगका रुप बना सीताको प्रलोभित किया था। १ भाग, पारा ३ भाग, पौर गन्धक ३ भाग पत्रके कनकरभा (सं. स्त्री०) कनकवर्णकलिका रम्भा, | रसमें पौस गोली बनाये। फिर इस गोलीको लौह मध्यपदसो.। सुवर्णकदली. चम्पा केला। पात्रमें सर्षपके तैलसे पकाते हैं। जब पौषध अच्छी कनकरस (सं० पु०) कनकवर्णा रस: उपरसः। तरह भुन जाता, तब चल्हेसे नीचे उतार वैद्य उसका १हरिताल। २ गलित स्वर्ण, गला हुप्रा सोना । चर्ण बनाता है। अन्तको उक्त चर्णमें चित्रकमल, बनकरेखा (सं. स्त्री०) कनकप्रभाको बेटी। | त्रिकटु, गुड़त्वक्, विडङ्ग एवं विष २१ भाग और कनकसीदव (स.पु.) कनति दोप्यते इति कना, विफला ३ भाग डाल छागमूत्रसे गुना-प्रमाण वटी कला दीप्ता कला अवयवः तथा उद्भवति, कनकला बांध लेते हैं। निष्कपरिमाण वाकुची-तेलके साथ उद-भू-अच । सर्जरस, लोबान, धना। कनकसङ्कोचरसको एक गोली सेवन करनेसे कुष्ठरोग बनकवती (सं. स्त्री.) कनकमस्तास्याः, कनक प्रारोग्य होता है। (रसरवाकर) मतुप मस्य व डोष । १ स्वर्णभूषित स्त्री, सोनेसे | कनकसुन्दररस (सं० पु०) वरातिसारके अधिकारका बड़ी औरत। २ कनकवर्ण राजाको राजधानी। | रस, बुखारके दस्तोंको एक दवा। हिङ्गल, मरिच, कनकवतौरस (सं• पु०) पीधिकारका एक रस, गन्धक, पिप्पली, टङ्गण (सोहागेको लाई), विष एवं बवासीरको एक दवा। पारा, गन्धक, हरिताल, धुस्तरवीज समस्त द्रव्य समभाग एकत्र भांगके रसमें सैन्धवलवण, साली, इन्द्रयव एवं तुम्बी प्रत्यक १ पल एक याम घोंट चनेको बराबर गोली बना लेते हैं। पौर लशुन ४ पल कारवल्ली (करेली) पत्रके रस में यह पौषध अतीसार और ग्रहणोरोगनिवारक है। १दिन घौटनेसे यह रस प्रस्तुत होता है। वटी इसके व्यवहारकाल दधि, अन्न,घोल प्रभृति पथ्य भोजन गुच्चा-प्रमाण बनती है। कनकवता रसको एक वटी करना चाहिये। ( भैषज्यरबावली) प्रत्यह सेवन करनेसे रक्त, वात एवं कफ तीनोंके | कनकसूत्र (सं० ली.) कनकनिर्मितं सूत्रम्, मध्य- विकारसे उत्पन्न होनेवाला पर्योरोग मिट जाता है। पदलो। स्वर्णसूत्र, सोने का तार। (रसरवाकर) | कनकसेन-एक प्राचीन राजा। इन्होंने मेवाड़के राना- कनकवणे' (सं० पु०) कनकस्य वर्ण इव वर्णो यस्य, | वोकाकुल प्रतिष्ठित किया था। रानावोंके कुलतालिका- बहुव्रो०। । राजविशेष, एक राजा। नेपालके | ग्रन्थमें लिखा-कनकमेनने भारतवर्षके किसी उत्तर- • बौह इन्हें शाक्यसिंहका पूर्व अवतार मानते हैं। (त्रि०)| प्रदेशसे चल सौराष्ट्र प्रायद्वीपमें पदार्पण किया और २ स्वर्णकी भांति वर्ण विशिष्ट, सुनहला,, सोनेको तरह | वहां एक उपनिवेश बसा दिया। उस समय सौराष्ट्र चमकनेवाला। प्रायद्वीपमें परमारवंशीय कोई राजा राजत्व करते थे। कनकवाहिनी (सं• स्त्री.) काश्मीर राज्यको एक | कनकसेनने बलपूर्वक उनका राजत्व छोन वीरनगर नदी। (राजतरक्रियो १।१५०). | वसाया। उन्होंके वंशीय राजावाने विजयनगर, कनकविग्रह (म. पु.) विशालपुरीके एक राजा। वलभीपुर प्रभृति कई नगरों को प्रतिष्ठा की। प्रवाद- कनकवीज (सं• क्ली.) धुस्त रवीज, धतूरेका वीजा। कनकसेनने ही वनभी संवत् चलाया था। कमकथति (सं• पु.) कनकवर्या थलिर्वाणविशेषो| कनकस्तम्भरुचिर (सं० वि०) वर्णके स्तनोंसे प्रकाश- यस्य, बहुव्रो । कार्तिकेय। . मान, जिसमें सोनेके खम्भे चमकें। बनकगिस (सं• पु.) रामाययोल एक पहाड़। वनकस्तम्भा (स• स्त्री.) सुवर्णकदसौवच, चम्मा- का पड़।