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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/७६४

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७६४ कापञ्जलनवाय-कपित्य है। (राजनिघ) २ तित्तिरिपक्षी, तीतर। इसका! पड़ता है। उक्त मतमें एकत्वनय विषयक ज्ञान त्रित्व मांस सदोषनाशक, धारक, वर्ण-प्रसवताकारक और और एकत्व चतुष्टय विषयक जान चतुष्ठका कारण हिका, खास, तथा वायुरोगनाशक है। गौरतित्तिरि है। सुतरां त्रित्वके अन्तर्गत कहनेसे बहुत्वक अन्यान्य तित्तिरिकी अपेक्षा अधिक गुणशाली रहता । कारण एकत्वका लाघव होगा। यदि चतुष्ठादि है। ( सुचत ) कोई कोई काकातूवाको भी कपिञ्जत संख्यामें भी बहुत्व लग जाये, तो एकत्ल चतुष्टय कहता है। ३ एक ऋषिकुमार । वाणभट्ट-रचित ज्ञान चतुष्टका कारण ठहरते गौरव पाये। एकत्व कादम्बरी उपाख्यानमें यह खेतकेतु ऋषिके पुत्र और चतुष्टय ज्ञानमें लघुत्व रहता है। इसलिये वित्वमें पुण्डरीक के बन्धुकी भांति वर्णित हैं। ४ शिलारस, ही वेदबोध्य बहुत्वका पर्यवसान है। फिर ऐसा सोबान। होनेपर बहुत्व समझना दुःसाध्य न लगेगा। यदि कपिघलन्याय (संपु०) बहुत्वके वित्त संख्या में बहुत्वका ज्ञान आ जायेगा, तो बहुकपिञ्जसके हननमें परवसित किये जाने का-न्याय, जिस तरीके में तीनसे | प्रवृत्तिका दूसरा अज्ञाननिबन्धन वाधा न खायेगा। लादा अदद तीन ही पददपर खत्म करें। वेदमें सुतरां वेदके अप्रामाण्यको शङ्का चल नहीं सकती। एक श्रुति है- कपिजला (सं० स्त्री.) शालिधान्यविशेष, एक धान। ___ "वसन्ताय कपिञ्जलानालभेत्।" यह श्लेष्मकरी होती है। (अविसहिता) वसन्त यागके निमित्त बटु कपिजल हनन करे।। कपितैल (सल्लो०) शिलारस, लोबान। इस श्रुतिसे प्रथम दृष्टि में स्पष्ट समझ नहीं पड़ता-| कपित्व (स. क्लो०) कापय भाव, रोस, हिस । कितने करिबल हननका विधि लगता है। क्योंकि | कपित्थ (सं.पु.) कपिस्तिष्ठति फलप्रियत्वात यन,. वित्वसे पराव पर्यन्त सकल संख्यापर बहुत्व चलता | कपि-स्था-क पृषोदरादित्वात् सलोपः। १स्वनामख्यात हैजैमिनिके "प्रथमोपस्थिसपरित्याग प्रमाणाभावात्" वृक्ष, कैथेका पड़। यह मधुर, अम्ल, कषाय, तिता, सूत्रको देखते इस स्थलपर 'बहुत्व'से वैदिक तात्पर्य । शीतल, वृष्य, संग्राही एवं वातल पौर पित्त, अनिल, 'बि' निकलता है। फिर ऐसा न समझनेसे वेदपर तथा व्रण होता है। फिर भामकपित्थ अम्ल, अप्रामाण्यापत्ति पाती है। क्योंकि विवंसे 'पराधव उष्णा, ग्राही, वासल, जिह्वाजायकर, विदोषवर्धन, पर्यन्त सकल संख्या में 'बहुत्व' रहते लोग यह ठहरा | रोचक पौर कफ एवं विषघ्न है। पक्क कपित्थ मधुर, न सकनेसे निश्चय वेदपर प्रवृत्तिशून्य हो जायेंगे अस्लरस तथा गुरु, और दोषत्रय, श्वास, वमि, श्रम,: 'बहु कपिल'से कितने कपिनल सायेंगे। मीमांसा. हिलारोग तथा लमहर होता है। ( राजनिघण्ट) कारने इस विरोधको अच्छी मीमांसा देखायो है कपित्यका संस्कृत पर्याय-दधित्य, ग्राही, मन्मथ, "प्रथमोपस्थितेस्सन्नत्वात्।* ( मौमांसासू०) । दधिफल, पुष्यफल, दन्तशठ, कगिस्थ, मालर, मङ्गल्य, - बिस्वकी उत्पत्ति होनेपर त्रित्वके साथ एकत्वके नीलमल्लिका, ग्राहिफल, चिरपाको, अन्थिफल, कुच- ज्ञानद्वारा चतुष्ठ निकलता है। सुतरां चतुष्ठ प्रभृति फल, कपोष्ट, गन्धफल, दन्तफल, करभवल्लभ, काठिन्य- संख्या निकलने से पहले नियमतः त्रित्वका अस्तित्व फल और करतफलक है। मानना पड़ता है। यही कारण है-त्रित्व संख्या में इस वृक्षको हिन्दी में कैथा, महाराष्ट्रीमें कोबत, ही वेदबोध्य बहुत्व पर्यवसन है। अर्थात् वेदमें जिस दक्षिणीमें कबित, मलयमें बेला, सामिलमें बैल- स्थलपर बहुत्व भावगा, उस स्थलपर प्रथमोपस्थितत्वसे मरम, बिलम वा बिल्लङ्ग, तेलङ्गमें बैलगाकेत, कपित्थम विख लिया जावेगा। जिनके मतमें वित्वविशिष्ट वा पुलि, सिंहलोमें देवल, बायोमें झन, श्यामोमें एकत्वज्ञान चतुष्टका कारण नहीं ठहरता, उनके | मा-कयेत्, पोतु गोजमें बलभ और अंगरेजीमें उड मनसे भी वित्वमें हो बहुलका पर्यवसान मानना। पापल (Wood apple) कहते हैं। इसका अंग-