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क्योंकि इनमें से प्रत्येक शब्द से पूरे वाक्य का अर्थ निकलता है, जैसे अकेले "हाय" के उच्चारण से यह भाव जाना जाता है कि "मुझे बड़ा दुःख है।" तथापि जिस प्रकार शरीर वा स्वर की चेष्टा से मनुष्य के मनेाविकारों का अनुमान किया जाता है उसी प्रकार विस्मयादि-बोधक अव्ययों से भी इन मनोविकारों का अनुमान होता है; और जिस प्रकार चेष्टा की व्याकरण में व्यक्त भाषा नहीं मानते उसी प्रकार विस्मयादि-बोधकों की गिनती वाक्य के अवयव में नहीं होती।

२४९—भिन्न भिन्न मनोविकार सूचित करने के लिए भिन्न भिन्न विस्मयादि-बोधक उपयोग में आते हैं; जैसे,

हर्षबोधक—आहा! वाह वा! धन्य धन्य! शाबाश! जय! जयति!

शोकबोधक—आह! ऊह! हा हा! हाय! दईया रे! बाप रे! त्राहि त्राहि! राम राम! हा राम!

आश्चर्यबोधक—वाह! हैं! ऐ! ओहो! वाह वा! क्या!

अनुमोदनबोधक—ठीक! वाह! अच्छा! शाबाश! हाँ हाँ! (कुछ अभिमान मे) भला!

तिरस्कारबोधक—छिः! हट! अरे! दूर! धिक्। चुप!

स्वीकारबोधक—हाॅ! जी हाॅ। अच्छा! जी! ठीक! बहुत अच्छा!

सम्बोधनद्योतक—अरे! रे! (छोटों के लिए), अजी! लो! हे! हो! क्या! अहो! क्यों!

[सू०—स्त्री के लिए "अरे" को रूप "अरी" और "रे" का रूप "री" होता है। आदर और बहुत्व के लिए दोनों लिंगों में "अहो", "अजी" आते हैं।

"हे", "हो" अदर और बहुत्व के लिए दोनों वचनों में आते हैं। "हो" बहुधा संज्ञा के आगे आता है।