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३७२—धातु के अंत में "ना" जोड़ने से क्रियार्थक संज्ञा बनती है। (अं॰—१८८-अ)। इसका प्रयोग संज्ञा और विशेषण दोनो के समान होता है। क्रियार्थक संज्ञा केवल पुल्लिंग और एकवचन में आती है, और इसकी कारक-रचना संबोधन कारक को छोड़ शेष कारकों में आकारात पुल्लिंग (तद्भव) संज्ञा के समान होती है। (अं॰—३१०), जैसे, जाने के, जाने मे, इत्यादि।

(अ) जब क्रियार्थक संज्ञा विशेषण के समान आती है तब उसका रूप उसकी पूर्ति की कर्म (विशेष्य) के लिंग वचन के अनुसार बदलता है, जैसे, "तुमको परीक्षा करनी हो तो लो।" (परीक्षा॰)। "वनयुवतियों की छबि रनवीस की स्त्रियों मे मिलनी दुर्लभ है।" (शकु॰)। "देखनी हमको पड़ी औरं-गजेबी अंत में।" (भारत॰)। "बात करनी हमे मुश्किल

कभी ऐसी ते न थी।" "पहिनने के वस्त्र आसानी से चढ़ने उतरनेवाले होने चाहिएँ।" (सर॰)।

[स॰—क्रियार्थक विशेषण के लेखक लोग कभी कभी अविकृत ही रखते है, जैसे, "मत फैलाने के लिए लडाई करना।" (इति॰)। कौनसी बात समाज को मानना चाहिए।" (स्वा॰)। "मनुष्य-गणना करना चाहिए।"(शिव॰)।]

३७३—क्रियार्थक संज्ञा के विकृत रूप के अत में "वाला" लगाने से कर्तृवाचक-संज्ञा बनती है, जैसे,चलनेवाला,जानेवाला,इत्यादि। इसका प्रयोग कभी कभी भविष्यत्कालिक कृदत विशेषण के समान होता है, जैसे, आज मेरा भाई आनेवाला है। जानेवाला नौकर। कर्त्तृवाचक संज्ञा का रूपांतर संज्ञा और विशेषण के समान होता है।

[सूं॰—"वाला" प्रत्यय के बदले कभी-कभी "हारा" प्रत्यय आता है। "मरना" और "होना" क्रियार्थक संज्ञाओं के अंत्य "आ" का लोप करके "हारा" के बदले "हार" लगाते हैं, जैसे, मरनहार, होनहार। "वाला" या "हार" केवल प्रत्यय है, स्वतंत्र शब्द नहीं है। परंतु गुसाईजी ने मूल शब्द और इस प्रत्यय के बीच में 'हु' अवधारण-बोधक अव्यय रख दिया है, जैसे